पृष्ठ:राजविलास.djvu/१८०

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१७३ राजविलास । कीजत गेह कुघट्ट ॥ लबकहि लुट्टहि लुक लच्छि । गए तिन नाहर नंचन गच्छि ॥ १५३ ॥ बिहस्सिय योगिनि बीर बेतालामहेश सु गु यहिं मच्छय माल ॥ झरप्फहि पंषिनि गिद्धिनि झुड । उड़ नभ कक गहे पल तुंड ॥ १५४ ॥ . जितं तित लग्गिय लुच्छित जेट । पशू पल- चारिनि पूरिय पेट ॥ बढ़यो रस बैरिन सेन बिभत्स । सुरासुर मनिय अगुत अच्छ ॥ १५५ ॥ अरे नन भासुर अड्डह भाइ । लगी जनु मारुत ग्रीषम लाइ ॥ चकत्तह चूरि चमू किय चून । फिरे हय हीसत सिंधुर मून ॥ १५६ ॥ ___ मसक्कहि यकहि श्रीरंग साहि । कलंमलि चित उठंत कराहि । हहकहि तहि मिड्डहि हत्या महल्ल- नि मज्झ डुलावहि मत्थ ॥ १५७ ॥ गए कितहू तजि मीर गंभीर ॥ नहीं सु नवाबनि के मुंह नीर । तुरक्क न कोइ रहयो हम तीर । भिरे इन सत्य करे हम भीर ॥ १५८ ॥ - इही बिधि युग्गिनिनैरहि भाइ । बली कमधज्ज सुषग्ग बजाइ । चले चतुरंग चमू निय लेइ ॥ दमा- मह दुनि के सिर देइ ॥ १५८ ॥ ॥ कवित्त ॥ दिल्लि नयर करि ढिल्ल ढाहि पाबास ढंढोरिय। दुह महल दलमलिय बग्घ से असुर बिरोलिय ।