पृष्ठ:राजविलास.djvu/१८५

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१७ राजविलास । ससि सूर जास ऊपम युग जानिय । सुरतरु सुरमनि सिंधु देव ज्यों अधिक सुदानिय ॥ अरदास सकल कमधज्ज की मन्नहु सांई प्रसन मन । पतिसाहि पिशुन पच्छे फिरयो प्रावहिं हम अब प्रभु शरन॥१८०॥ संग्रामहि असमत्थ समझि बिन लहु हम सांई । सांई बिनु कहा सेन तेज सांई ही तांई ॥ महा राय गय मोष सोइ होते समत्थ पहु । अब प्रभु ही सों अदब रहै रटिये कितीक बहु ॥ कमधज्ज कहे इन कलह में करि उप्पर निज जानियहि । राजेश राण जगतेश सुन्न ओलम तो बस पानियहि ॥ १८१ ॥ मारे हम बहु मुगल दंद रचि जोर साहि दर । युग्गिनिपुर परजारि पारि कीनी धर पद्धर ॥ लच्छि अमित तहँ लुट्टि चंड चौकी चकचूरिय । हय गय रथ भर हनिय पेट पशुपंखिनि पूरिय ॥ कीने यु षत प्रसपत्ति के केतक मुख करि कित्तिये । राजेश राण जगतेश सुन्न पहुप साय अब जित्तिये ॥ १२ ॥ नागोरिय नृप कज्ज दीन पतिसाह जोधपुर । इहै आदि हम उतन सो ब आवै प्रभु उप्पर ॥ यदु- पति ज्यो पंडवनि कलह में आरति कप्पहु । नृप के नंद रु नारि थान निर्भय तह थप्पहु। आयो ब साह औरंग चढ़ि हम लरिहैं सब प्रभु हुकम ॥ राजेश राण जगतेश सुभ रहोरनि राखहुं शरम ॥ १८३ ॥