पृष्ठ:राजविलास.djvu/२०८

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२०१ राजविलास । सु थान महाराण तिन नेनवारा गुरु गढ़ निपट । असपति अनेक आवे तऊ जयति हिंदुपति खग्ग झट ॥ ८॥ संमुह दल जैसिंघ कुँघर रक्खें स कलापह । दल सुभीम दक्खनहिं मंडि बहु सुभट मिलापह ॥ भुजा बाम भगवंत सिंह महशय बंधू सुभ। रखे पीठि महराय मनोहरसिंह मेरु धुन ॥ दिसि च्यारि रक्खि दिग्वाल ए च्यारि च्यारि हाजार हय । नव सहस तुरग बिचि हिंदु नृप जुद्ध राण राजेश जय॥१००॥ पातिसाह दल प्रबल तदपि महराण तेज तिन। परे न अग्गे पाउ हिरनपति ज्यों हूतासन॥ तरु तरु यंभतु तकतु जकतु जहं तहं गुरु जंगल । ज्यों कुरंग जंगली समै सम तल महि मंडल ॥ सापुरस सीह सीवान इन अचल अचल के आदरत । ओरंग सुसेवत प्रोझेत चौंकि चौँकि उट्ठत चित ॥१०॥ ॥दोहा॥ असपति अहनिसि प्रोझकतु राणतेज अहहेज । आयो के आयो सुभव अनमी हिंदु अजेज ॥१०॥ मंडै भूलि न हूं महल सहल न चढ़त जगीस। दहल राण राजेश की दुरयौ रहत दिल्लीश ॥१०॥ डरत डरत असुरेश दल करत सुकास सकोस । आए उदयापुर निकट दुज्जन पूरित दोस ॥१०४ बसुधाधर देखे निकट अघट घाट अजीत ।