पृष्ठ:राजविलास.djvu/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०२ राजविलास । यंभयो निज दल तिनहि यह भयो साहि भयभीत १०५ धसे न को धाराधरहि धर सम आए धाइ । राणनि सुनिये वत्त रुचि कविलेश से कहाइ । ॥कवित्त ॥ अब तज्जि न अहमेव उनहिं अहमेव सुभावहु । देखि देखि निज दुर्ग कहा निज मन कंपावहु ॥ धर सम आए धाइ धसो अब क्यों न धराघर । जुरो पाइ इत जंग रोस करि लेहु रठा वर ॥ पिखिन पहार परि क्यो रहे पय पय क्यों यंभो सुपय । राजेश राण कहि साहि सुनि पवन वेग परखरहु रय । ॥दोहा॥ लरो तो आवहु अचल विधि, न नरु कि छडिव देश। जासु शाहि जुग्गिनि पुरहि, राण कहत राजेश ॥ संदेशा यों श्रवन सुनि, लग्गी अरि उर लाइ । रोस.पूर महराण को, सद्द हिये न समाइ ॥ १० ॥ मनु मद पीवो मक्वडहि, डसि वृश्चिक लसि भूत । किंकिं कौतुक ना करे, सो दिल्लीपति सूत ॥१११॥ ॥ कवित्त ॥ कथन राण प्रति कूर भूरि भृकुटी चढ़ाई करि। दब्बि अधर करि मीडि भूत भासुर सरोस भरि ॥ चढ़न कह्यो चकतेस बरजि तब खान बहादर । अहो कवि ले भालंम विकट आयो पहार वर ॥ नन लाग नारि गोरान को हय सहयी निपंहे न तहं । इहि मंत