पृष्ठ:राजविलास.djvu/२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजबिलास। कहिं धरा पुरुष कुरूप, सुन्दरी सकल सरूप । लव नही किहिं कण लूण, गोबहत किहिं धर गोण ८॥ इत्यादि देश अनेक, अति अधम नर अविवेक। समझे न धर्म सुसार, गरथल अग्यान गमार ॥८६॥ ____सब देश में सिर दार, उत्तम जहां आचार । महिमेद पाट समान, पुहवी न कोइ प्रधान ॥ ८७ ॥ धर लोक जहं धनवंत, वाणी सु मिठ्ठ बदंत । धारत निज२ धर्म, सुन्दराकार सु सर्म ॥ ८ ॥ अति दत्त चित्त उदार, आदरै पर उपकार । लेवा सुलच्छी लाह, सौभाग धारक साह ॥ ८ ॥ जह हिंदुपति जयवंत, कवि मान राज करंत । श्रीराज सिंघ सुरांण, बिरुदैत बड़ बाषाण ॥ ८ ॥ दोहा। मेद पाट महि मंडणह, चित्रकोट गढ़ चारु । मानौ मुग्धा माननी, हिय मानिक को हार ॥१॥ अति उतंग अंबर अचल, अकल अभेद अभीत । चित्रकोट पर चक्रतें, आदि अनादि अजीत ॥२॥ तुंग विशाल त्रिकोट तह, कोशीशावलि कंत । मोढ़ पौरि दुर्घट सुपथ, बज्र कपाट वणंत ॥३॥ . कवित्त । - गुरु चौरासी गढनि मही मेवार सुमंडन । अकल अभेद अभीत विषम पर चक्र बिहंडन । तुग विशाल