पृष्ठ:राजविलास.djvu/२२५

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२१८ राजविलास। नारि गोर आराध रुपि, अन्न सुसंचि अपार ॥१॥ कबिल गज एसी करत, महि मेवार बसाउ । रोकि चित्र कोटहि रहूं, जाव जीव नन जांउ ॥ २ ॥ कवित्त। पहिलोने पतिसाह बरस द्वादस करि विग्रह । गट लिने बिनु गर्दा गरब गुरु छंडि २ ग्रह । हों अभंग ओरंग साहि गढ़ मुबस बसांउ॥ महि मुलेहु मेवार दाम निज नाम चलाऊ। दिल्ली न जाउ इहि दुर्ग ही जां जाऊं तां लग रहों । यो लोक सुनाउन गह्न गुरु साहि करत धर संगहों ॥ ३ ॥ ॥दोहा॥ रह्यो साहि नोरंग रुपि, चित्रकोट गढ़ चंग। केहरि ज्यों गिरि कंदरा, रोकि रहे रिन रंग ॥ ४ ॥ बिहिय गढ़ दल बल बिकट, ज्यों जलनिधि सधिदीप । ठोर ठोर चोकी ठई, उदभट भट अवनीप ॥ ५ ॥ गंग कुँअर गुन अग्गरो, सगताउत सिरमोर । आप ज़नाउन मासुरनि, चढि लग्गो चीतोर ॥ ६ ॥ फवित्त । बय किसोर तनु गोर समर बरजोर सर तन । दिल उदार दातार बधत बड बार उंच मन । सब सयान गुरु मान राज महारान सभा मुख । भर किवार मेवार सुभट सिरदार सदा सुख । केसरी सिंह रावत्त को कुंभर गंग बहु सेन बनि वढि धाए गढ़ चित्तोड़