पृष्ठ:राजविलास.djvu/२२६

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२१९ राजविलास। को नाप जनाउन प्रासुरनि ॥७॥ सौ कुंजर साहि के मग बिचि मिले झरत मद । अंजस गिरि से संग रंग मचकुंद कुसुम रद । घम २ घूघर घमकि ठन्न घंटानि ठनंकत । पीठि झूल पट कूल पढ़त पीलवान धत्त धत । अंकुस प्रहार मानै न जे तोरत संकर साख तरु । बर नगापच्छ चरखी चलत लेत लपेटें सुड भर ॥८॥ सबल दरोगा सत्य असुर असवार पंच सय । नेजा बजत निसान हेष हेषनि हीसतु हय । तकि २ मारत ताक कठिन कम्मान बान कर । पाषर अरित पवंग सार संनाह टोप शिर । दो दो कटार कटि तोत दो दो दो तेग बंधे दुमन । चोकी सुदेत बन चोकसी गजनि सिखावत सुगति गुन ॥६॥ सुडारे साहि के निरखि बहुरूप निहवर । गरजे कुंवर गंग फोज असुरनि अड्डो फिरि । फेरो रे कहि पील हक्कि पीलवान हँकारे । सबनि अग्ध संहरो उररि असि बर उम्भारे । महाराण दुहाई कहु सुमुख हत्थि ले चलो गेल हम । नन जान देहु कुंजर सु इक तेक तुबक समरोब तुम ॥ १० ॥ ... सुनि सु दरोगनि सेन आइ गय हत्थिन अड्ड। मार मार मुख बकत अधिक ढकवार उमंडे । असि उभारि जघरी कुंभर धायो जन केहरि । कबिल निकाल कराल झाक रज्जी सुझाट झरि । मारे मु