पृष्ठ:राजविलास.djvu/२२८

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रामविलास । २२१ तुढे टोप तेग बान, नोरंगे नेजा निसान। अश्व झारे असवार, धावें लग्गे खग्गे धार ॥ २२ ॥ रोरें जोरे भारे कुंत, उभारे बाहें सुमंत । निकरें परें निनार, दरसे लसे दुमार ॥ २३ ।। ___महि रुरें रुड मुड, भनके करी भड । चोसठि पीवें सुचाल, उछंगे रंगे अल्लोल ॥ २४ ॥ रुंडमाला गंठे रुद्द, निहस्से नारद नद । पल- चारी घष्षे प्रेत, डकारे हक्कारे देत ॥ २५ ॥ गिद्धनी झरधे गेंन, बुट्ठ खुट्टे मंस चैन । भारी यों मच्यो भारत्थ, प्रगटे मनो पारस्थ ॥ २६ ॥ नग्गे ते दरोगे भोर, जैसे मात होते चार । हाक फुक्की हाहाकार, दिल्लीपति दरवार ॥ २७ ॥ धाओ रे धानो को धीर, माझी जोइ बड़े मीर । दंती सोई एक दार, जाय लिए हिन्दू जोर ॥ ८ ॥ कवित्त । जीते कुंभर सुजंग कितक करि जूह भंग करि । कितक झारि पीलवान तारि संकर गय भर हरि । सब में देखि सरूप हत्थि दस बीस सुहके । कुंतननी चु करत सुभट हुंकरत सुबके । निरभय निसंक बहु रे नि गम हत्थिन हल्लत तिन हनत । केसरी सिंघ रावत्त को गंग न आलम को गिनत ॥ २६ ॥ सुनी साहि मोरंग गंग कुंवर लिन्ने गज । बदत छाइ बिलखाय शीत मोरयौ मनु पंकज । उरहि ध्र-