पृष्ठ:राजविलास.djvu/२४०

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२३३ राजविलास। जंग घन हनि यवन पालम दल भंजहु अनम ॥ बैरिनबिनासकिज्जै बसति त्रिपुरा दाहिनहत्थ तुम१०॥ संझ समै लहि संच प्रबल रतिवाह बिहारिय । खान पान खल दल बिलग्गि दीपक अधिकारिय॥ तबहिं तरित ज्यों बटकि परे पतिसाह सेन पर । गाहत दाहत हनत भनत मुख मार मार भर ॥ रलतलिय रुहिल्लनि परि रवरि दहकि बहकि धकि परि दहल । तजि खान पानभग्गे तुरक कलकल कंटल मचि कबिल१९ छन्द त्रोटक । हय चंचल सांवलदास चढ़। कर गेंन उभारिय खग्ग कढ़ ॥ जुरि जोध बिजोध बजे जरके । कटि टोप कटक्कि करी करके ॥ १२ ॥ पिरि कंकनि कंक सुधार षिरें । झनकंत कृपान कृसानु झरें । मचि कंदल मीर गंभीर कटें । खननंकति बज्जति खग्ग झटें ॥ १३ ॥ तुटि सिप्पर खुप्पर लोनि हटें । फिरे शेद बिकेद है शीश फ॥ छिलि लोह पठान सुछाक छकें। जल मातुर बारिहि बारि बकें ॥ १४ ॥ दुहुं ओर दुबाह दुहाइ बदै । अप अप्पन सांई चहंत उदै ॥ करि ताक संभारि संभारि कहें । बरसें घन ज्यों बहु बान बहें ॥ १५ ॥ कर कुंत कटारि सकत्ति धरै । फरमी हर हुल्ल