पृष्ठ:राजविलास.djvu/२४१

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२३४ राजविलास। गुपत्ति फुरै । गज मुग्गर नेज गुरुज्ज बजै ॥ गगनां- गन गोर भाराब गजै ॥ १६ ॥ धर धुधरि सोर सुरत्त धखें । जहँ अप्पन प्रान न कोई लषे ॥ तजि साहस संकुर सांइ तजे । भय पाय रु कायर जात भजे ॥ १७ ॥ घन घोष बागल सिंधु घुरे । सहनाइ सुभेरि गंभीर सुरें॥ कुननंत किते कलि कह करें । रिन जोर रुहिल्लनि रुड रुरें॥ १८ ॥ उतमंग पतंत किते उचरें। सरनाथ कितो उर मूल ररें। इक अल्लह अल्लह नाउं अखें । मिलि नेनन टोप मिलंत मुषे ॥ १८ ॥ ___ भय रूकिनि टूकनि तेइ रुमी । निकरें दुहु लाइन ग्रीव नमी । हबसी मिलि आपस मेंइ हने । अंधि- यारि निसा नन सुद्धि गर्ने ॥ २० ॥ ___. नर प्रासुर केक कमंध नचें । शिर भूमि अट- दृटहास सचैं। हय हल्थि बिना असवार फिरें। धन पक्खर भार सुढ़ार ढरें ॥ २१ ॥ तरफ अधतंग तुरक्क तुटें। चलि बच्चर बोल नदी उपटें ॥ भभके करि सुड बिहंड भई । महि कीन जहां तहँ रत्त मई ॥ २२ ॥ उड़ि श्रोनित छिछि प्रयास तटें ॥ पय कोकम ज्यों पिचकारि छुटें ॥ गवरीपति अंबुज माल गठे ॥ सब केक हँकारि बेकारि उठे ॥ २३ ॥