पृष्ठ:राजविलास.djvu/२४२

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राजबिलास । - गुरु गिद्धिनि तुडनि, मुड गहें । झरफें गग- नांगन अँड बहें ॥ रत ले युगिनी जल ज्यों अचवें ॥ चवसहि जयं जय सद्द चवें ॥ २४ ॥ धज नेज झंझोरिय जोरि धनं । टक चार ढंढो- रिय ढान घनं ॥ कमधज्ज महा बलि जैति बगी ॥ भय मंनि रुहिल्लनि फोज गमी ॥ २५ ॥ तजि यानहि संबु तुषार तई ॥ रय कंचन बारुन बस्तु नई ॥ निशि ही निशि भग्गि हेरान भए । गति हीन ह्र साहि के पास गए ॥ २६ ॥ कवित्त । गए असुर तजि गर्व हसम हय गय रथ हारिय ।। गिरत परत बन गहन भए भारथ भय भारिय ॥ निसि अंधियारी निपट सुबट थट घट्ट न सुज्झत ॥ कानन तरु कंटकनि अंग अंशुक भालुज्झत । उझकंत परस्पर पिक्खि अग सब रुहिल्ल सुगहिल्ल हुन ॥ कमधज्ज गहिय करवार कर जंग रंग मंड्यो सुजय ॥ २७ ॥ इहिं परि यान उयप्पि के रक्ख्यो जस रहौर ॥ स्वामि. धर्म पन सच्चयो सकल सूर सिरमोर ॥ २८॥ इति श्री मन्मान कधि विरचिते श्री राज विलाम शास्त्र सांवल दास समाज कृत द्वद वर्णनं नाम षोड़शमो विलासः ॥ १६ ॥