पृष्ठ:राजविलास.djvu/२४४

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राज विलास । २३७ किय । पारन्त रवरि पर धर प्रबल जानि प्राय कालह जगिय ॥७॥ म्लेच्छ मुछ मुडियहि खंडि महजीदि मदा- रनि । काजी पकरि कुरान गरहि बंधे बगमारनि । बारत बारि प्रथाग धाक बज्जी धागानी ॥ भेष बदलि रिपु भगत बदलि बानी तुरकानी । धकधुनी देश मालव सुधर बारुन ज्यों चंदन बिटपि। मुह मिल्यो असुर नन मुक्कियहि यिर सुप्रतंग्या एह थपि ॥ ८ ॥ छन्द मोतीदाम । च ढयो दल सज्जि सुसाह दयाल । किधों कलि- कालनि को षय काल । बहै बहु मग्ग कटक्क बिकट्ट॥ जनो जल अंबुधि गंग उपट्ट ॥ ॥ सुभे दल अग्गहि श्याम सुडार । चले जनु अंजन के यु पहार ॥ ठनंकति घंट सुग्रीवहि ठाइ । घमंकत घुघरु नेउर पाइ ॥ १० ॥ झरे मदवाह कपोलनि झोर । भमैं तिन दोन- सुवासहि भौंर ॥ सुभे शिर तेल सुरंग सिंदूर ॥ बहैं बिरुदावलि बंक बिरूर ॥ ११ ॥ मनोहर कुंभहिं मुत्तिनमाल । मझे मझ पाइय पांच प्रबाल ॥ उभै अव शीशहिं चौर सुभंत । सभार स उज्जल दीरघ दंत ॥ १२ ॥ झिलतिय रंग सुरंगिय झल। जिगंमिग याति