पृष्ठ:राजविलास.djvu/२४७

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२४० राजविलास । कराह प्रतक्ख ॥ जना कलपंतर अंतर जग्गि । लुकि- डुकि मानस मानस लगि ॥ २८ ॥ किये प्रति कूचनि क च प्रलंब । लसे दल बदल सावन लुब ॥ धसंमसि बिंटिय कोट सुधार ॥ परी पतिमाह सुमेह पुकार ॥ २८ ॥ वित्त ॥ मंडव भय मंनियो उजरि प्रज भग्गि उजेंनिय ॥ सारंग पुर भय सून निकरि नट्ठी मृग नेनिय ॥ दहल परिय देवास धरनि गड्डियहि हेम धन ॥ सुनिब स- संकि सिरोज चलिय चंदेरि चक्रित मन ॥ जहं तहं - वाज संके यवन जंजरि गढ़ करियहि यतन ॥ आयो सुसाहि यों भरिन पुर उझक अहा निसि मिटय नन॥३०॥ ____ अखें के असुरानि कत तिल गहर न किज्ज । पावत कटत उदंड छंडि गृह के तनु छिज्जै ॥ कह सेवित सुख सेज उठ्ठि उठ राखि सुप्रातम । मेो कहु पूरन मास गहु सुगिरि गुहा क्रमक्रम ॥ बिलपंत बालके बाल तजि नठ्ठि बनं घन गहन नग ॥ सकबंध साह दल चढ़त सुनि बिभजि लोक ज्यों बन बिहंग ॥३१॥ बिंटि काट बर बीर भंति गो सीस भयंगम । ज्यों पहार अरु जलधि प्रबल दल • दति पवंगम ॥ किल्ला तजि तिहिं काल पुले आसुर सु पठानी ॥ सेन असुर घन सहम मुक्ति साहस समुंदानी ॥ जगि लुट्टि