पृष्ठ:राजविलास.djvu/२५०

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राजविलास । २४३ दोहा । श्री जयसिंह कुमार को, अब अवदात अनूप । राजसिंह महाराणं के, पाट प्रभाकर रूप ॥ १॥ सतरा सै सैंतीस के, बर्स अषाढ़ बषान् । मारे मीर मतंग महि, थिर चीतोर सुथान ॥२॥ सामंतनि सनमानि के, किय सुमंत धर काज । असुर सँहारन ऊमहे, गिरिधर अंबर गाज ॥३॥ आगे ज्यों कूअरपने, उदयराण मुंह अग्ग । कुभर प्रतापहिं नाम किय, षडे घन पल षग्ग॥४॥ सो सबंत सुबिचारि चित, बढ़ बीर रस बीर । कंठीरव जनु कोप करि, गर्यो गिरा गंभीर ॥५॥ कवित्त । चित्रकोट थानहि सुचंड ओरंग सुनंदन । सहि- जादा अकबर सुसेन हय गय रथ स्यंदन ॥ अद्धलाख साहन अनीक सपलान सपरकर । सहस एक सिंधुर सरूप जनु शैल पट्टझर ॥ पयदल असंष प्राराब गुरु नारि गोर जंबूर घन । रहि राण धरा रिणथंभ रुपि कोट पोट गट्ठो यवन ॥ ६ ॥ दिशि दिशि देत दहल्ल धरा धुपटत धान धन । गाम २ प्रतिगाहि ढाहि प्रासाद पुरातन ॥ पारि पौरि मांकार सुरहि बध करत न संकत । रहत छक्यो दिन रेनि बेर बहु बहत अहंकृत ऐश्वर्य तरुन मद अंध