पृष्ठ:राजविलास.djvu/२५२

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राजविलास । २४५ कितकु एह इत सुख करे, सुन्दरि सत्य सनेह ॥ १३ ॥ बीबी से छू लू करे, भग्गो सोवत भोर । मध्य निसा रिन मंडि के, जीवित गहो सजोर ॥१४॥ कवित्त । अंबर इक नादित्य इक्क गिरि गुहा सिंह इक । असि इक इक प्रतिकार ठौर औरहिं न एह ठिक ॥ ए सुथान बहु मान नहीं असुरान थान इह । करों भंजि चकचूर साहिजादा रुसेन सह ॥ हम छतें कोन इहिं रहि सके प्रावो असुर अनेक दल । जब लों सु सिंह नहिं संचरें तबलों जानि कुरंग बल ॥ १५ ॥ तब लग तुम प्रस्तार तार उडुग्रह तबहीं लग । तब लग तस्कर जोर घूक दृग बल तबहीं लग ॥ तब लग रजनी रोर ढोर तब लग गल बंधे । षह षद्योत उद्योत चक्क चकई चषु अंधे ॥ किन्नो प्रकास जब सहसकर तब न कोइ ग्रह तार तम ॥ कातिक कुंभार बद्दल कबिल बाहु बहें झूठो बिभ्रम ॥ १६ ॥ करें दहन कर गहन अवर अहि मुह घर घल्लं । सिंह जगावै सुपत विषम बीरनि सँग बुल्लें ॥ उदधि सरन प्रासँगे पाइ बिष तनु सुष चाहें । त्यों ए तुरक अयान लरन हम सत्य उमाहें । जिन दहे अद्रि बड़ बड़ प्रगनि तिन मुंह अग्र कितेक तरु । बारुनहिं उड़ावत बायु से ती पूनी कह जोर बर ॥ १७ ॥