पृष्ठ:राजविलास.djvu/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४६ राजविलाम । बुल्लय तब बर बीर कुँवर भगवंत सिंह भर । महा- राइ अरि सिंह नंद षट दरस उच कर ॥ संग्रामहिं सुसमत्थ बेद बसुमति प्रति रक्खन । कबिल करिन केहरि समान बहु बिद्धि बिचक्खन ॥ इतो ऽब काप इन परि कहा सकल बत्त सुबिशेषियहि ॥ संहरों माहि सेना सकल तो हम हत्थ सुलेषियहि ॥ १८ ॥ कितक एह गुरु काम एह लहु हम तर लायक। कँवल उषारन काज कहा कुंजर दल नायक ॥ कट्टन कांस कुठार कहा केहरि कुरंग कजि। कहा कीटकनि केकि कहा मंडुकनि नाग सजि ॥ कितनैक कबिल ए युद्ध कर गड्डर ज्यों सब घेरि घन । इक्क क हनों असि घाउ करि उथपि थान मोरँग सुतन ॥ १८ ॥ (अथ चंद्रसेन झाला के बचन ) ॥ प्रथक ऊष ज्यों पीलि दलिग कन ज्यों घन दुज्जन । मूरत ज्यों उनमूरि दूरि नंषो दह दिसि तिन । करपनि ज्यों आकरषि षेत पल तिनु २ तत्थिय ॥ कुसुम कली ज्यों चूटि प्रूटि डिरनी ज्यों मिच्छिय । घन दाव घाव 'घन घंघलनि अरि असुरानि उथपिहों। कहि चंद्र- सेन झाला मुकर फिर निज यानहिं थप्पिहौं ॥ २० ॥ (अथ चहुवान राव सबलसिंह को बचन) सबल सिंह ज्यों सिंह तबहि गुजो करि तामस ॥ सुनत गेन प्रति सद्द बिकट चहुवान बीर रस ।मारों मुगल