पृष्ठ:राजविलास.djvu/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२५६ राजविलास। अथ माधोसिंघ चोंडाउत की अरदास । सांई सुष तें हम सुखी, सकल सूर सामंत । ज्यों तरु सी च्यो पेड़ ते, पात २ पसरंत ॥१॥ अथ कन्ह सगताठत की अरदास । सांई सकल सयान हो, गुरु बंधे गजगाह । एक तमासो अनुग को, देषहु दंदहु बाह ॥७३॥ कर युग जोरि सुललित करि, करि निज २ अरदास । करि प्रसन्न जैसिंघ मन, बग्ग यंभि बरहास ॥ १४ ॥ सहस सुभट हय वर सहस, प्रभु रक्खे निय पास । समर धसे हय सहस दस, सुभट सहस दस भास ॥७॥ कवित्त ॥ सकल सूर सामंत अरज बित्ती सु अद्ध निशि । वरषागम बद्दल बियाल द्रग चाल बंध दिशि ॥ भेले भय भारय सुभीम पतिसाहि सेन पर । त्रटकि जानि घन तरित भटकि चित चक्रित असुर भर ॥ वे चूक २ कबिला बकत जानि किसान लुनंत कृषि । बज्जी सुझाक झर षग्ग झट संयुग प्रलय समीर शिषि ॥६॥ छंद मकुंदडामर । झननंकिय षग्ग सुबज्जि झटाझटि धाइधसं- मस धींग धसे । कर कुंत सकन्ति रुकन्ति कटारिय लोह झलमल झांइ लसें । जरि जोधनि जोध जनो जम जारिय टोप कटक्ति करी करके । झटकंत सनाह कृपान झनंकति हड्ड कटक्कि बजे जरक ॥ ७ ॥