पृष्ठ:राजविलास.djvu/२६४

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राजविलास। २५७ मिलि कंकनि कंक सुधार षिरंतह अग्गि झरंत कि बिज्जु झला। तिन होत उदोत तकै उतमंगहि कोपित सर अनंत कला ॥ मचि कंदल मीर गंभीर कटें मधि माझिय जेइ मसंद महा। तनु भार सभारिय षंध भुजा तिन भार पराक्रम षग्ग बहा ॥ ७८ ॥ बहि बज्र प्रहार गदा गुरु मुग्गर पक्खर भार सुढार ढरें। टुटि टोपनि टूक फटें फुनि टट्टर सैद बिकैद से सून फिरें ॥ लरि लुब पठान छके छिलि लोहनि षंड बिहंड बितंड भये । प्रहनंत न अप्पन आन पिलानत जानि सुठाण के षंभ गये ॥ ७८ ॥ दहुं ओर दुबाह उछाह उमाहिय आपने ईश की आन बदै। तजि नेह सुदेह सुगेह सुमानिनि साइंय काम सुहाम रुदै ॥ करि ताक संभारि संभारि सुहक्कत बेधत बान अभंग बली। तनु वान संधान सुभान स प्रानहिं बेधत आनहिं होत रली ॥ ८ ॥ __सर सोक बजंत सुढ़किय अंबर डंबर जानि कि मेघ श्रवै। बहि रंग प्रबाह सुराह प्रबालिय चाल रँगे जनु चेल चुवै ॥ फरसी हर हुल्ल गुपत्ति फुरंतह धीरज केइक धीर धरै। भननंकिय गार सुसार भटकिय गेन गजें गिर शृङ्ग गिरें ॥८१॥ ___धर पिट्ठि प्रसक्कि २ धराधर कायर जानि कुरंग भगे। घन घोष सुत्रंबक सिंधु घुरंतह ज्यों बर बीरनि