पृष्ठ:राजविलास.djvu/२६८

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राजविलास, २६१ सभीति गिरि बन गहन निसि अँधियारो अरबरत॥४॥ हिय हहरंति हुरम्म हार तुदृत मातिन गन ॥ परत हीर परवाल लाल श्रम भाल स्वेद कन ॥ निघ. टि स्वास निस्वास भरति लोचन मृगलोचनि ॥ यूथ भ्रष्ट मृग बधु समान चक्रित रस रोचनि ॥ धावंत उ- मग्गनि मग्ग तजि एकाकिनि गिरि गृह सजति । ए ए प्रताप जयसिंघ तुम अरिन बाम रन बन ब्रजति॥५॥ लुट्टि षजान अमान लुट्टि हय गय सुबिहानिय । साहिगंज ढंढोरि तारि तंबू तुरकानिय ॥ नौबति लेइ निसान भार रिपु थान सुभज्यौ। जानी सकल जिहान सकल सज्जन मन रंज्यौ ॥ बहुरे निसंक जय करि बहुत मिल्यौ म्लेछ तिन मारयौ। महाराण सुभट सामंत सजि बहु असुरान बिडारयौ ॥ ६ ॥ दोहा। भगौ साहिजादा गयौ गढ़ अजमेर अनि ॥ रहे न भासुर और रन नृपत बाब सब नह ॥ ७ ॥ करें सुमुजरो कुम्भर सों सकल सूर सामंत ॥ छवि छिलते रन छोहले बहु सुष पाय अनंत ॥४॥ लहे सु जिन २ लुटि के हय बर ही हेम ॥ कुअर अग्ग ते भेट करि पोषिय प्रबर सुप्रेम ॥ ८ ॥ रक्खन जोगे रक्खि के सनमाने सब सूर ॥ ग्राम ग्राम तिन देइ गुरु सज शिरपाव सनूर ॥१०॥