पृष्ठ:राजविलास.djvu/२७०

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२६३ राजविलास। ___ इन्द्र रूप ऐश्वर्य दान जलधर ज्यौं दिज्जै ॥ राजतेज रबि रूप क्रोध रिपुकाल कहिज्जै ॥ लीला ज्यौं लच्छीस न्याय श्री राम निरतर ॥ अर्जुन ज्यौँ सर अचल बिक्रमादित्य बचन बर ॥ कलियुग कलंक कप्पन बिरुद मलन असुरपति बिमल मति* ॥१०६॥ ऐं उत्तम प्राचार निबल प्राधार सबल नृप ॥ सुरहि संत जन सरन जग्य घन दान होम जप ॥ बिस्तारन बिधि बेद ईश प्रासाद उद्धरन ॥ असुरायन उत्थपन सुकवि घन बित्त समप्पन । दिन दिनहि सदा ब्रत षट दरस भुजाई यदुनाथ भति । कहि मन राण राजेश यों क्षत्रीपन रक्खन्त षिति ॥ १०७ ॥ ___ इति श्रीमन्मान कवि विरचिते श्री राजविलास शास्त्रे महाराण श्री जयसिंह जी कुंभारपदे श्रीचित्र- कूट महादुग्गै पातिसाह औरंगसाहि कथ साहिजादा कब्बर तदुपरि रतिधाह वर्णनं नाम अष्ठादसमो विलामः ॥ १०८ ॥ ॥ इति श्री राजविलास ग्रन्थ संपूर्णः औरस्तु ॥

  • नोट- हम छंद का अंतिम चरण हस्त लिखित पुस्तक में

नहीं लिखा, परंतु अनुमान से जान पड़ता है कि इसका भी अंतिम चरण यही होगा जो इसके पहले और पीछे वाले छंदों का है। अर्थात "कहि मान राण राजेश यो क्षत्रीपन रक्खंत पिति" ।