पृष्ठ:राजविलास.djvu/३०

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राजबिलास । इण परे सरस भोजन सदा आणए । युक्ति योगिं- दनी भक्ति भल जाणए॥मास षट बोलि या रीझियो सो मुनी। धन्य तू बालका एम बोले धुनी ॥ ५१ ॥ अब हमं गमन मन प्रात बड़ भावनां । सपि के रातो पछ सिद्धावना ॥ पूरियो अंग तस अधिक उक्तक पणों। आव ए तहति कहि मंदिरै प्रापणों ५२॥ राति बोली हुई पुब्ब दिशि रत्तड़ी। बेगि आवै जितै भूप सू बद्दडी ॥ तितै हारीत रिषि गगन गति हल्लियो । बोल बापै तदा आइ इम बुल्लियौ ॥ ५३ ॥ अहो जोगिंद करि उच्चर्यो आपणौ । थिर थई नाथ जी रद्य सिरि थापणे ॥ रवनि सुनि देव मुनि अप्प उभौ रह्यो । किज्जिये भूप तुहि मंडि मुख यों कह्यो ॥ ५४ ॥ मंडियो मुख तिणे स्वमुख तंबालयं । नंषियो हेत करि पीक निर्मालयं ॥ देषि उच्छिष्ट निज वयण टाली दियं । लिहिय रिषि मुष तो पाय झल्ले लियं ॥ ५५ ॥ कहय रिषि राम ने बाल कीद्धो किसौ । अमर हुइ देह नित एह हूं तो इसौ ॥ नेट तो पायथी राज जायै नहीं। किद्ध तू भूप में एह वाचा कही ॥ ५६ ॥ अंप्पि बर एम योगिंद वर अतिक्रम्यो। राग धरि तिच्छ अडसठि फरसण रम्यौ ॥ सदन संपत्त