पृष्ठ:राजविलास.djvu/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजबिलास । बापा हुवां संझए । माल्ह तो हंस गति मोद मन मंझर ॥ ५७ ॥ सत्त दिन बोलियां नंतरे यह समैं । रंग रस वनह क्रीड़ातणी वनि रमै ॥ चेत सुदि तीज ना दीह सौ चारुयं । सकल सुह बत्तिया करिय सिंगारुहं ॥५॥ नगर नागद्रहा हूंत ते नीसरी। केलि करि वा चली बनहि हर करी ॥ गाव ए नवनवी भास करि गीतयं । रिभ ए मान कवि रसिक तिहि रीतयं॥॥ दोहा। जाति जाति निज मुड जुत, बाला करत विनोद। रास देइ निज रंग मै, पति वति सकल प्रमोदई। अकस्मात तब सिंह इक, केप किये महकाय । उतरिसु हरि नाकाश तें, अबलनि मध्य सु प्राय ॥६१॥ बिफुर्यो सो बहु बाउ ज्यौं, बबकि बिलूरै बाल । के भग्गी भय भीति के, बनिता केक बिहाल ॥६॥ सूर वीर देखे सकल, हल्लि कि नहि नह नाइ । सिंह मग्ग संगहि रह्यौ, बाला अति बिललाय॥३॥ क्रबित्त । सुनि बापा नप सार अबल गन मध्य सुपा- वहिं । चापर धनुष चढ़ाय सहज टंकार सुनावहिं ॥ उहि छिन सिंह अदिढ होत सब बाला हरषिय। प्रवर पुरुष सु प्रधान नयन धरि नेहा लिरषिय ॥ मनु