पृष्ठ:राजविलास.djvu/४८

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राजबिलास। कवित्त । जगत सिंघ जोधार राण हिंदू मग राखन । अनम अगम अकलंक वेद व्याकरन विचक्षन ॥ एक लिंग अवतार आदि नर वर अतुलह बल । मुष देषत निधि मिलत जगत जपत जस परिमल ॥ सुकृत सुमेर सीसोदनप साहसीक सुंदर सुमति । श्री करन रान पाटहि प्रवर पुन्यवंत मेवार पति ॥ ३८ ॥ छन्द हनूफाल । __श्रीजगत सिंह सुरांन, विरुदेत बड़ बापान । सु श्रिय सुरेस समान, दाता सु हय गय जान ॥ ३८ ॥ से हिंदु कुल आदीत, रन मह अभंग अजीत । रक्खन सु रवि कुल रीति, गावसु कवि जस गीत ४०॥ कालंकि जिन केदार, सब हिंदु सिर शृंगार । दुतिवंत जिन्ह दरबार, दिन दिनहिं दय दय कार ४१ पुहवी प्रजा प्रतिपाल, देष्यो सु दीन दयाल । रिख रंग अंगर ढाल, भट जानि भीत भुजाल ॥४२॥ वसुमती रक्खन वीर, नित नवल जिन्ह मुख नीर । संग्राम साहस धीर, सौवर्ण वर्ण सरीर ॥ ४३॥ नित सिंघ रूप निसंक, बलवंत कट्टन बंक । कट्टन सुरोर कलंक, मुख. जानि पुर्ण मयंक ॥ ४४ ॥ छोजंत शीशहि छत्र, पटि कनक दंड पवित्र । चामर दुरंत कुचंग, तल करन रिपु मद भंग ॥ ४५ ॥