पृष्ठ:राजविलास.djvu/४९

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राजबिलास। चंचल सुरांन चढ़त, पर भूमि हलक पडत । रिपु नारि बनहि रूरत, गह तासु ग्रंथ गडंत ॥४६ ॥ - कर झल्लि वर करवाल, परटंत पिशुन पयाल । .. रति रवन रूप रसाल, असुरेस चित नटसाल ॥ ४७ ॥ षनकंत जसु कर पग्ग, तुलि अनम नरपय लग्ग। चुबि छडि के रिपु लग्ग, कर गहत धनु ज्यों कग्ग४८ सग सिंधु सरस समाव, प्रति सबल दल उमराव । दै नासु पर धर दाव, पहु करन लष पसाव ॥ ४ ॥ षल झल्लि कीजत षून, हय गय सु हाटक हूंन । दल जानि पावस दून, चलते सु गिरि हुइ चून ॥५०॥ अति दत्त चित्त उदार, इल करन पर उपगार । भरना सु पुन्य भंडार, कवि जपत जय जय कार५॥ जिन मानधाता जाय, करि परम पावन काय । निजषंति तीरथ न्हाय, मन सत्त हेम मँगाय ॥ ५२ ॥ बरतुला अप्प बइट, जगतेश रान सु जिट्ट । वसु कनक जल घर बुट्ट, दातान जिन सभ दिठ्ठ ५३॥ - कुंदनहि कुंती कीन, दिल उचित दान सुदीन । नर नाथ नित्य नवीन, लहि लच्छि लाहा लीन ॥५४॥ श्री उदयपुर शृंगार, जगनाथ राय जुहार । प्रासाद वर प्राकार, जगनेश पुन्य अपार ॥ ५५ ॥ पर कनक विसवा बीस, ब्रहमंड रवि इकंधीस। जगतेश रांण जगीश, बहु बेर किम बख्शीश.॥ ५६ ॥