पृष्ठ:राजविलास.djvu/५४

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राजबिलास । ४७ रंगार । सीलावट जट्ट कुडंवि अहीर, कुलालरु मालिय भाइय भीर ॥ २ ॥ तमोलिय तेलिय वृन्द तल्यार, सिलीकर नापित लष्ष लषार । चितारे लुहारे सु कागदि केज, षरादि जरादि किते रंगरेज ॥३॥ - किते सब नीक मनीगर संच, सुधोप कलीलि करानि प्रपंच । डमंकर भामर भुजे कलार, बन कर भीलरु उड़किरार ॥४॥ नटा विट मागध बटुक सनूर, सुमोचिय म्लेच्छ मतंग समूर । रैबारिय रठिय कठि चमार, पनीगर पायक षेट प्रचार ॥८ सुगायन पण्यवि यानि प्रभृत्ति, विभौ युत पनि अनेक वसत्ति । नियंनिय वासन नार निनारि, प्रजा जनु अंबुधि नीर अपार ॥ ६ ॥ गृहंगृह दंपति भोग संयोग, गृहंगृह निर्भय, नूर निरोग । गृहंगृह संपति लच्छि सुलच्छि, गृहंगेह दासिय दास सु अच्छि ॥८॥ गृहंगृह मंगल गीत उछाह, गृहेगृह पुत्र सु पुत्रिन व्याह । गृहंगृह वादिन पुत्र प्रसूति, गृहंगृह जानि अनंत प्रभूति ॥ बिराजहि केउ बजार प्रबन्ध, सचौंधित गंधित