पृष्ठ:राजविलास.djvu/५७

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राजबिलास । मृगमद केसरि और कपूर, कालागरू चंदन कुंकु सिंदूर । रसंचिस गंध कसं हरतार, हरीत्रि गरू त्रिफलानि सभार ॥ ११४ ॥ सुपारिक दाष मषानै बदाम, घनै पिसता अष- रोट सु नाम । चिरोंजिय सक्कर पिंड षजूरि, सिता बहु भांति सु संचय भूरि ॥ ११५ ॥ सु मस्तकि लीलि मजीठ अफीम, यवांनी पंच जायफरू सीम । ठटे बहु ठट्ट सु गंठिन ठाइ, कितै इक मानन नाउ कहाइ ॥ ११६ ॥ ... कितेकन हट्टिय हट्ट कनिक, बहू बिधि तंदुल गौहु चनंक । मसूररु मुंगरु मौठ सु भाष, घनै जव झारिरु दारि सभाष ॥ ११७ ॥ घनै घत तेलरु ईष अलेष, सबै रस हींग तिजारे विशेष । सुवेचहि सच्च तराजुनि तोल, सबै मुख बोलत अमृत बोल ॥ ११८ ॥ किते इकदोइ निहट्ट इकट, मंडै बहु भांति मिठाइय मिठ्ठ । जलेबिय घेउर मुत्तयचूर, चिरौंजिय कोहलापाक संपूर ॥ ११ ॥ सु अमृति मोदक लाषण साहि, गिंदौरनि पैरनि गंज सु चाहि । पतासे हे समि षंड पंगेरि, तिनं- गनि केसरिपाक सु हेरि ॥ १२० ॥