पृष्ठ:राजविलास.djvu/५८

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राजबिलास। साबूनिय रेवरि माठिय सोठ, फबंतिय फैननि लग्गत ओठ । तपै घत सौरभ मध्य कटाह, करें पंड चासनि वास सराह ॥ १२१ ॥ किते इत मोरनि हट्ट अमान, प्रबेचहिं पाके अडागर पान । गठे बहु बीरिय बीटक बुद्ध, सुपारिय क्वाथरु चूरन शुद्ध ॥ १२२ ॥ कितै तह गंध सुगंधिय तेल, जुही करनी मुगरेल पंचेल । सुकेतकि केवरा कुंद रिजाइ, गुलाब सुमालति गंध सुहाइ ॥ १२३. ॥ घनै प्रतरादिक सांधे जनादि, कुमकुमा नौर किर कुसुमादि । सु केसरि चंदन चावनि. नग्ग, महं. महि थान बजार सुमग्ग ॥ १२४ ॥ किती तहँ मालनि फलनि माल, गुहैं कर चौसर झाक झमाल । सु कंचुकि गिदुक कंकन भंति, वि- लोकहि वांक करें मन षंति ॥ १२५ ॥ किते. तहं गुड गरीनि के गंज, सिंघार अनार सियाफल संज। जंभीरिय सेव सदाफल जानि, पके बहु बेर हिमंत बषानि ॥ १२६ ॥ किते ऋतु ग्रीषम राइनि आम, केरा सहतूतरु दाष सकाम । पके घरबूजे सु अमृत पनि, मडै घन मेवा कहैं कत-मांनः ॥ १२ ॥