पृष्ठ:राजविलास.djvu/६३

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राजबिलास। बंदननिमाल घर घरहि वार, सब सहर हट्ट पट्टन सिंगार । तोरन सु बंधि प्रति द्वार तुंग, रवि मंडियान देषत रंग ॥ १५६ ॥ वसुपाल वेगि जोइसि बुलाय, प्रासीस विम दीनी सुभाय । रवि रूप चिरं जगतेश रांन, थिर करहु रद्य पहु हिंदुथान ॥ १५७ ॥ - दीना समान बैठक्क दीन, पढ़ि लिषत जन्म- पत्री प्रवीन । मंड्यो सुताम धुर लगन मेष, वहु वीर्य चित्त कारक विशेष ॥ १५८ ॥ वपु भुवन लगन अज शशि बइठ्ठ, बहु ऋद्धि वृद्धि कारक बलिट्ठ । दुतिवंत सहज सुंदर सुदेह, नर नारि निरषि दृग धरत नेह ॥ १५८ ॥ गिनि मिथुन लगन वर सहज गेह, अति उच्च राहु लच्छी अछेह । मन हरष नित्य मंगल महंत, बल चित्तकार पंडित वदंत ॥ १६० ॥ अरि भवन लगन कन्या उमंग, सविता बइठ्ठ बर बुद्ध संग । भाषे सुजांन रिपु करन भंग,, अति तेज वंत जंगहि अभंग ॥ १६१ ॥ कहियै सु लगन कुल गृह कलित्र, प्रगटे सु तहां भृगु शनि पवित्र । भामिनी भूरि संपजै भाग, संपदा शुक्र निज गृह संयोग ॥ १६२ ॥