पृष्ठ:राजविलास.djvu/७४

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राजबिलास । ६७ आषत षग्ग बल जसु अपार, जगतेश रांन जग जैतवार । सोभत सोभ सुरपति समांन, नर नाह भव्य ऊपम निधान ॥ ४० ॥ लिखितं सुबुन्दि गढ़तें यु लेष, बर छत्र साल रावह विशेष । पय कमल सत्त बेरहि प्रणाम, संदेस एह बीनवै श्याम ॥ ४१ ॥ सुख सकल अत्र प्रभु तुम सुदृष्टि, आरोग्य लम्भ संयोग इष्ट । इच्छे यु तुम्ह उत्तम उदंत, बंछंत चित्र ज्यों पिक बसंत ॥ ४२ ॥ निय धर्म धरन तुम गुरु नरिंद, दीपंत तेज हिन्दू दिनेंद । भूपाल तुम सु. हौं परम भृत्य, निश्चै यु एह बर रीति नित्य ॥ ४३ ॥ गुरु पुत्ति अच्छि बर हम सुमेह, रति रंभ सरिस गति रूप देह । श्री राज कुंभर बर लहइ सोइ, हम हृदय हरष तव सिद्धि होइ ॥ ४४ ॥ किज्जेब एह हम चित्र कोड, जुगती सु जांनि जग रह जोड । लच्छीस योग ज्यों तीय लच्छि, संयोग सची सुरराय स्वच्छि ॥ ४५ ॥ श्री राम जोग ज्यों जानि सीय,पढि नल नरिंद दमयन्ति प्रीय । त्याँ युगत एह मनौत हत्ति, सगपन संबंध किज्जेक सत्ति ॥ ४६ ॥