पृष्ठ:राजविलास.djvu/८

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राजविलास । दोहा। सेवत सुर नर मुनि सकल, अकल अनूप अपार । बिबुध मात बागेश्वरी, दिन दिन सुखदातार ॥१॥ देवी ज्याँ तुम करि दया, कालिदास कवि कीन । बरदायिनि त्यों देहु बर, निर्मल उक्ति नवीन ॥२॥ पइये बर कविराज पद, लच्छी वंछित लील। तुम तु? जगतारनी, सुमति संयोग सुसील ॥ ३ ॥ कौन गिनै मरु रेतुकन, को घन बुद कहंत । को तारायन परि कहे, त्याँ गुन आदि अनंत ॥ ४ ॥ जपियहिँ तुम कौं जग जननि, अधिक ग्रंय आरंभ । कवित कथा मंगल करत, दूरि हरन दुख दंभ ॥ ५ ॥ सांप्रत देहु सरस्वती, वानी सरस विलास । भारति जग पोषनि भरनि, इच्छित पूरन आस ॥६॥ चित्रकोट पति राज चिर, राज सिंह महारान । सूर्य वंश वर सहस कर, पल पंडन पूंमान ॥ ७ ॥ गावत जसु जस छंद गुन, पावत सुख भरपूर । सुपसायँ तुम सारदा, दुरित अनासहिँ दूर ॥ ८॥