पृष्ठ:राजविलास.djvu/८५

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१८ राजबिलाम। सुन्दर देह सकल वीकला सुलच्छन । मुक्ता फल मनि मड़े अंग कंचन आभूषन ॥ दिन्ने यु गांव हथ लेव दत कसब पटंबर विविधि भति । श्रीरोज कुंभार सु सनमुखहि धरिय भेट हाडा नपति ॥ १०१ ॥ दोहो। धरिय भेट हाडा धनी, हय गय दासी हेम। अधिक रहवर अग्गलै, पोषिय पूवर सु म ॥१०॥ कबित्त । पेषिय प्रवर सु पेम व्याह किन्नौ सु वेद विधि । सुर नर करहि सराह राखि रस रीति महा रिधि ॥ जलधर ज्यों याचकनि, देइ घन कंचन दत्तह । अनु- क्रमि पाए गेह, उभय वर राज उमत्तह ॥ जगतेश रांण सुन्न करि सुजय पत्त इहि बिधि उदयपुर । पूज मिलिय राज वर पिक्खनहि अति दलमलियत उरहि उर ॥ १०३ ॥ दोहा। प्रति दलमलियत उरहि उर, मिलिय सघन नर नारि पिरवहि राज कुंभार प्रति, अनमिष नैन निहारि १०४ कवित्त । अनमिष नैन निहार चित्त चिंतहिं मृगनेनिय । गोरी गज गामिनी सकल कल विधु वर वैनिय ॥ रासु इंद आकार, कुंभर श्रीराज कुंभारह । इन जननी सु पुमान कहिय करमेत अपारह ।