पृष्ठ:राजविलास.djvu/८६

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राजबिलास । दोहा। धनि धनि सु इनहि घर गेह निय हर जिन पूज्यौ सु हर। जो देइ देव तो दिज्जिए भव भव इनहि समान वर १०५ वर वामा मिलि मिलि बदै, भव भव हम भरतार। देव दया करि दीजिए, इहिं वर के अधिकार २०६॥ कवित्त । इहि वर के अधिकार, नही को अवर नरिंदह। इंद चंद अनुहार देह दुति जांनि दिनदह । बहु नर वर विंटयो गिनति को करै हयग्गय ॥ पायक को नहि पार जपत बंदी सु जयजय । श्रीराज राण जगतेश सुव बुदी गढ़ सुदरि बरिय ॥ निज महल भाइ जननी सुनमि सकल मनेोवांछित सरिय ॥१०॥ इति श्री राजविलास शास्त्रे श्री राज कुंआर जी कस्य श्री बुंदी दुर्ग प्रथम पाणिगृहणावसरे कमधजेन शांक जय प्राप्ति नाम तृतियो विलास संपूर्णम् ॥ ३ ॥ कबित। राजसिंह महारांण पुहविपति अप्प कुंवरपन। विपुल लगायो बाग वियो बसुधा नंदन-वन ॥ प्रवर कोटि तिन परधि झुड सतपत्र कनक झर । वृद्धि तहां वापिका कही सनमुख दक्षन कर ॥ निज नगर उदयपुर निकट तें अगिनकोन घां अक्खियै । सब रितु विसाल तमु म मति नयन सु महल निरीखिये ॥१॥ -