पृष्ठ:राजविलास.djvu/९४

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राजबिलास। .. ८७ त्रिहों लोक धाराधरासं त्रिवेनी, दिशा व्याम तो ले शिवा सौख्य देनी । गिरा मान तालों नई कित्ति गाजै, रिधू राज सी राण मेवार राजै ॥ ३ ॥ ॥ कबित्त ॥ राजसिंह महाराज बन्धु बर बीर महाबल । महाराज अरि सिंह मोज अप्पै हय मेंगल ॥ सुरही बिम सहाय अनम अरि जूह उथप्पन । मृग रिपु कुल मृगराज क्रूर दुख दोहग कप्पन ॥ सुलतान गहन मोषन सगति टेकवन्त रिन नन टरैं। संसार सरन महाराज के आवे ते दर उग्गरै ॥४०॥ छन्द वृद्धिनाराच । श्री राजसिंह रान के रिधू सुबन्धु राए । गिरा नरिन्द कित्ति गाज गंग जानि गज्जए ॥ लिए सु सत्य लक्ष नील लच्छि इन्द लद्यए। तपंत जास खग्ग तेज तिख मिच्छि तद्यर ॥४१॥ बहू बिबेक बुद्धि बीर बिश्व मैं बखानिए । प्रताप पुञ्ज पुन्य पाज प्राक्रमी पिछानिए ॥ परोपगारवन्त पुज्य पावनं प्रमानियें । यु जातरूप रूप तैं अनूप रूप जानियें ॥ ४२ ॥ अजेज गाढ़ आगरे इला धनी अभङ्गय । जुरे सजह सत्य जोध जीतई सु जंगयं ॥ प्रधान दान देत प्रेम पुष्करी पवंगयं । पयोद ज्यों प्रसंसिए चवन्त भास चंगयं ॥ ४३ ॥