पृष्ठ:राजविलास.djvu/९५

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राजबिलासा उदार चित्त अखिये अहो निशं उल्हासकं । सु जास सर्व ग्रंथकार सिख वैस हासकं ॥ विचित्र वित्त बाम बाजि बारनं विलासकं । विशाल कित्ति चन्दवान सा प्रथी प्रकाशकं ॥४४॥ करन्त केलि कारि कन्त कन्ति जानि काम न । विशिष्ट वान बाल वेस विंटयो सु बाम जू ॥ नचन्त पात्र नायका गृहंति राग ग्राम जू । सदैव सौख्य सागरं सु मान ईस धाम जू ॥ ४५ ॥ सहाय साधु श्याम सेव सत्यता सुहावई । पुरान वेद पाठ के पढे प्रमोद पावई ॥ सु देत लक्खु २ दान दुःख का दुरावई । महीन्द महाराज को गुनी सु बोल गावई ॥ ४६ ॥ कृपान पानि दुठ काल क्रूर युद्ध कारई।। धसक्किमिछि जास धाक धुज्जि भीति धारई ॥ सुकज्ज सज्ज साहसी कसंबरं सुधारई। बजन्त सिन्धु बद्यनं महन्त सित्रु मारई ॥ ४७ ॥ तनू उतङ्ग तत्त तेज तीर बेग से तुरी। षिवन्त जानि विद्यु पाय पेगसं करें पुरी। मदोन्मत्त रूप मेहकाय से लसे करी। करै सु दत्त कित्ति काज सार सार जासिरी ॥४॥ धपक्क कन्ति मिच्छि धारि धरा जाल धक्क हैं । सुसद्द बेधि अंग शंभु हद्द सीह हक्क हैं ।