पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१३०

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दृश्य] तीसरा अंक ११५ रत्नसिंह-तुम मेरी वाग्दत्ता हो । सौभाग्यसुन्दरी-हाँ। रत्नसिंह-क्यों तुम मुझे स्वीकार करती हो ? सौभाग्यसुन्दरी-मन-वचन-कर्म से। रत्नसिंह-(लड़खड़ाती जबान से ) और प्यार भी। सौभाग्यसुन्दरी-(नीचा सिर करके ) अपने प्राणों से बढ़कर। रत्नसिंह-कुमारी, यह सूर्य अस्त हो रहे हैं। सौभाग्यसुन्दरी-हाँ। रत्नसिंह-यह सुन्दर मेघों के बीच प्रकाशमान नक्षत्र शुक्र है। सौभाग्यसुन्दरी है। रत्नसिंह-वायु शीतल मन्द सुगन्ध बह रहा है । सौभाग्यसुन्दरी-बह रहा है। रत्नसिंह-हमारे हृदयों में प्रेम और त्याग की पवित्र अग्नि जल रही है। सौभाग्यसुन्दरी-जल रही है। रत्नसिंह-यह क्षत्रिय पुत्र देह को बलिदान करने रणयात्रा पर जा रहा है। सौभाग्यसुन्दरी हमारा सम्बन्ध देह ही से नहीं, आत्मा से भी है। रत्नसिंह-अवश्य, पर देह ही उसका माध्यम है। धर्म विधि देह के ही लिए है। सौभाग्यसुन्दरी-मैं मूर्खा हूँ। .