पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१४०

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रश्य तीसरा अंक १२५ विक्रम-यहाँ क्यों बैठे हो, यह मन्दिर है । उठो चलते फिरते , नजर आओ। दूसरा-हिंसकर) चले जावेंगे। बैठे हैं, कुछ तुम्हारा लेते तो नहीं। विक्रम-यहाँ बैठने का तुम्हारा काम क्या है ? पहला सैनिक-ज्यादा कुछ नहीं, जरा दीदारबाजी। विक्रम-(गुस्से से) मन्दिर में दिल्लगी । उठो यहाँ से। सिपाही-अपना काम देखो तुम लाल पीले न बनो वरना हमारी जबान और तेग साथ ही चलती है। विक्रम-(तलवार खींचकर) तब देखे, तुम्हारी तेग की बानगी। सिपाही- (तलवार सूतकर) देख रे काफिर'..... दुर्जन हाड़ा-यहाँ नही विक्रमसिंह, यह देवी का स्थान है। सिपाही-हम शाही बन्दे हैं । हमें परवा नहीं, शाही बन्दे से गुस्ताखी करने का मजा चखो। (तलवार का पार करता है) विक्रम-बादशाह का बड़ा डर दिखाया। तुम ऐसे कितने शाही बन्दों को काट फैंका । ( पैंतरा बदलता है) सिपाही-तुम जैसे को मारने का सबाब है, ले। (जनेऊ पर बार करता है।) विक्रम--(बार बचाकर काट करता हुआ ) तो ले अभागे मर । दूसरा सिपाही (तलवार घुसकर ) खबरदार !