पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१४२

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नवाँ दृश्य (स्थान-उदयपुर के राजमहल का प्रशस्त प्रङ्गण । सब सेना सुसज्जित खड़ी है रत्नसिह अन्यमनस्क घोड़े पर सवार कुछ सोच रहे हैं। सेना- नायक आज्ञा की प्रतीक्षा में है । शोर हो रहा है, घोड़े हिन-, हिना रहे हैं। समय-प्रातःकाल ।) रत्नसिंह-जीवन का सर्वोत्कृष्ट भाग यौवन है परन्तु क्षत्रिय के लिये यौवन सब से अधिक खतरनाक है । वह विप- त्तियों के बादलों में घूमता है, मृत्यु को वरण करता है । जीवन को चुनौती देता है, लोहू और लोहे के खेल खेलता है । (कुछ सोचकर ) कैसा मधुर कोमल सुख- स्पर्श । कैसी मोहक कण्ठध्वनि। उसने कहा था, प्राण- नाथ ! प्राणधन ! अब कब ये कान सुनेंगे (चौंककर) काल की भाँति दिल्लीश्वर बढ़ा आ रहा है मुझे उससे युद्ध नहीं करना है उसे रोकना है। मुझे मरना नहीं है जीवित रहना है। युद्ध में क्षत्रिय का मरना तो बहुत आसान है परन्तु जीवित रहना कठिन ! बहुत ही कठिन !! परन्तु मैं जीवित रहूँगा। कार्य सिद्धि तक तो अवश्य । यह मेरी प्रतिज्ञा है। मैं सत्यव्रती चूडाजी का वंशधर हूँ और अपने वीर पिता का प्रतिनिधि हूँ। (कुछ सोचकर) परन्तु यदि युद्ध में मृत्यु को आलिङ्गन करना पड़ा । यदि विजयलक्ष्मी प्रसन्न न हुई तो ?