पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१७८

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. दृश्य] चौथा अंक १६३ आदि से अब तक अथवा प्रलय तक एक ही क्रम और एक ही गति से कृमि, कीट, पतंग, पशु-पक्षी, मनुष्य, देव, यक्ष, किन्नर और राक्षसों के जीवन इसी भाँति पानी में बबूले की भाँति उदय हुए और अस्त हुए। इस महाकाल के महा प्राङ्गण में वे जीवन एक क्षण- भंगुर प्रमाणित हुए हैं जिनके नाम इतिहास के पृष्ठों पर अमर हैं। बड़े-बड़े महापुरुष, वीर-विजयी, चक्र- वर्ती इसी कालचक्र पर नृत्य करते गये-विलीन होते गये-काल ने उन्हें जन्म दिया और उनका ग्रास भी किया। इसी महाकाल ने प्राणों के इस व्यवसाय को अपना साधन बनाया हुआ है। जयसिंह-कौन तुम्हारे भीतर इस प्रकार बोलता है प्रिये ! कौन हो तुम-देवी कि मानवी ? ये मनुष्य की कल्पना और विचार शक्ति से परे की बातें तुम सोचती रहती हो, इस नवीन आयु में, नवीन जीवन में क्या- तुम्हारी वय की स्त्रियाँ यही सोचा करती हैं ? कमलकुमारी-(अनसुनी करके ) पर मैं कहती हूँ। जीवन जो कभी भी अपना नहीं है, उसे अपनाना तो मूर्खता है, उसकी कोई परिधि नहीं है, सीमा भी नहीं है। शरीर के अवसान के साथ उसका कोई सम्बन्ध भी नहीं है। फिर उसी को केन्द्र मान कर समस्त संसार को उसी में केन्द्रित करना हास्यास्पद है स्वामी ।