पृष्ठ:राजसिंह.djvu/२३४

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दसवाँ दृश्य (स्थान-अरावली का तंग दर्रा । बादशाही फौज बेतरतीबी से परेशान हो धीरे धीरे बढ़ रही है। बादशाह एक घोड़े पर सवार है। कुछ सर्दार परेशान इधर उधर चल रहे हैं। समय-सन्ध्या काल) अलीगौहर-हुजूर, सूरज डूब गया। दर्रे में खौफनाक अँधेरा बढ़ रहा है। हमारे पास रोशनी का कुछ भी बन्दोबस्त नहीं है । आगे बढ़ना मुश्किल है। बादशाह-इस खौफनाक देर के दूसरे मुहाने का पता लगा ? अलीगौहर-ठीक ठीक नहीं,क्योंकि वहाँ तक पहुँचने का रास्ता नहीं है। प्यादे और सवार ठसाठम भरे हैं। मगर मालूम होता है मुहाना कटे दरख्तों और पत्थरों से बन्द कर दिया गया है और उधर जयसिंह की मौज लड़ने को मुस्तैद खड़ी है। उधर एक तो बाहर निकलने की गुञ्जाइश ही नहीं, क्योंकि रास्ता साफ करने वाली कौज हम से कटकर पीछे पड़ गई है। फिर निकलने पर एक भी आदमी जिन्दा न बचेगा। पहाड़ी पर. चीटियों की मानिन्द भील फिर रहे हैं । ज्योंही हमने आगे कदम बढ़ाया कि भारी-भारी पत्थर और तीर हमारा भुरता निकाल देंगे। बादशाह-यहाँ रात काटना भी मौत को गले लगाना है। मगर मजबूरी है। यहीं पड़ाव डाला जाय ।