पृष्ठ:राजसिंह.djvu/२७

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१२ राजसिंह [तीसरा पद पर मेरा अधिकार था। परन्तु हमारे वंश का इतना ही त्याग नहीं है। उसने सदैव सबसे प्रथम सिर कटाकर मेवाड़ की रक्षा की है। उमका आज यह बदला ? कि हमारा ठिकाना छीना जाता है हमारी सेवाओं का यह पुरस्कार । रत्नसिंह-पिताजी । हमारे पूर्वजों ने मेवाड़ के लिये जब ऐसे ऐसे बड़े त्याग किये तब क्या हम इतना त्याग भी न कर सकेगे? राषत रघुनाथसिंह-त्याग १ इसे तुम त्याग कहते हो-यह अन्याय है। इसे हम सहन न करेंगे। जब तक मेरे हाथ में तलवार और शरीर में प्राण हैं, सलूवर की सीमा पर किमको सामर्थ्य है जो दृष्टि करे। मैं रक्त की नदी बहा दूंगा। मेवाड़ के सभी सरदार राणा के इस अन्याय के विरोधी हैं। रत्नबिह-यह मच है। परन्तु यह समय गृहकलह का नहीं। राणाजी के कान शत्रुओं ने भर दिये हैं। उनके विचार शीघ्र ही पलट जावेगे। रावत रघुनाथसिंह-तो तुम चाहते हो कि ठिकाना पारसौली वालों को सौंप दिया जाय ? रत्नसिंह-महाराणा की आज्ञा का पालन होना चाहिये। रावत रघुनाथसिंह-परन्तु मैं आज्ञापालन नहीं करूंगा। रत्नसिंह-तो राणा की सेना बक्षपूर्वक ठिकाने को खालसा करने श्रावेगी।