पृष्ठ:राजसिंह.djvu/३१

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१६ राजसिंह [ चौथा सी झझटों में फंसा है। अभी उसका पैर डगमगा रहा है। फिर मुझे विश्वस्त सूत्र से पता लगा है कि नये बादशाह आलमगीर ने महाराणा को ये परगने दखल करने को शाही फर्मान दे दिया था। महाराज, वास्तव में ये परगने राणा के ही तो थे। राजा-परन्तु जो परगने शाही खिदमात के बदले हमें मिले हैं उनका इस प्रकार हमारे हाथ से निकल जाना हमारे लिये बड़ी ही लज्जा की बात है। मैं राणा से युद्ध करूंगा। मन्त्री-हाथ जोड़कर) महाराज की जो मर्जी हुई सो ठीक है। परन्तु सेवक का निवेदन यह है कि युद्ध और सन्धि अपना और शत्रु का बलाबल देखकर ही करना बुद्धिमानी है । राजसिंह की शक्ति प्रबल है और हम उससे पार नहीं पा सकते। राजा-परन्तु हमारी पीठ पर शाही हाथ है। माण्डलगढ़ को हम से छीन लेना हमारा नहीं बादशाह का अपमान है। बादशाह के पास यह सारी हकीक़त लिखकर किसी सुयोग्य आदमी को भेज देना चाहिये। मन्त्री जो आज्ञा महाराज । मेरी सम्मति में महाजन राघवदास ही को इस कार्य के लिये भेजना ठीक होगा। वह बादशाह से सब ऊँच नीच निवेदन कर आवेगा। फिर जैसा अवसर होगा देखा जायगा।