पृष्ठ:राजसिंह.djvu/४०

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दृश्य] पहिला अंक गनी-तुमने सलूम्बरा का ठिकाना क्या राव केसरीसिंह को सौंप दिया। रत्नसिंह-अभी नहीं रानी जी। रानी-क्यों ? दरवार ने तो उसका पट्टा उनके नाम कर दिया है। इसमें विलम्ब क्यों ? रत्नसिंह-घणी खम्मा, रानी मा, राजाज्ञा पालने में मेरी ओर से देर नहीं हुई । मैं स्वयं राव केसरीसिंहजी के पास यह कहने गया था कि वे ठिकाना दखल करलें। रानी-शव जी ने क्या कहा ? रत्ननिह-उन्होंने कहा, सलूम्बरा ठिकाना चूड़ावतों का है, चूड़ा. वत मेवार की गद्दी के रक्षक और प्रतिपालक हैं। उनके ठिकाने पर मैं अधिकार नहीं कर सकता। राणा-क्या रावजी ने यह कहा ? रत्नसिंह-जी हॉ, सरकार। मैंने बहुत समझाया, परन्तु के ठिकाना दखल ही नहीं करते राणा-रत्नसिंह, क्या यह सच है कि रावत रघुनाथसिंह दिल्ली बादशाह के पास चले गये हैं रत्नसिंह-हाँ महाराज राणा-बिना ही मेरी आज्ञा के रत्नसिंह-हो महाराज । राणा-किस लिये ? बिना मेरी आज्ञा के क्णे? रत्नसिंह-उन्होंने आवश्यकता नहीं समझी महाराज।