पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/१३०

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कर ली। मराठों के सरदार आपा जी सिंधिया ने ईश्वरी सिंह के पक्ष का समर्थन किया। यह वात मेवाड़ के राणा से छिपी न रही। उसने ईश्वरी सिंह के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। कोटा और बूंदी के राजाओं ने माधव सिंह का पक्ष समर्थन करके मेवाड़ की सेना का साथ दिया। राजमहल नामक स्थान पर दोनों ओर की सेनाओं में भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ। मराठों की शक्तियाँ उन दिनों में बढ़ी हुई थीं। इसलिए कोटा, बूंदी और मेवाड़ की सेनायें युद्ध में भयानक हानि उठाकर पराजित हुईं। युद्ध में जीतकर ईश्वरी सिंह का उत्साह बढ गया। कोटा और बूंदी के राजाओं ने उसके विरुद्ध युद्ध में मेवाड़ का साथ दिया था। इसलिये ईश्वरी सिंह ने उन दोनों राज्यों पर आक्रमण किया। कोटा के राजा ने शक्ति भर युद्ध करके शत्रुओं का सामना किया। उस युद्ध में आपा जी सिंधिया का एक हाथ कट गया। परन्तु अन्त कोटा और बूंदी के राजाओं की पराजय हुई। उन दोनों राज्यों के अनेक गॉवों और नगरों पर आपा जी सिंधिया ने अधिकार कर लिया। युद्ध के बाद दोनों राजाओं को कर देना मन्जूर करके आपा जी सिंधिया के साथ सन्धि करनी पड़ी। आपा जी सिंधिया की सहायता मिल जाने के कारण मेवाड़ के साथ युद्ध मे ईश्वरी सिंह को सफलता मिली थी। इसलिए मेवाड़ के राणा ने ईश्वरी सिंह के विरुद्ध होलकर का आश्रय लिया और उसके साथ सन्धि करके आमेर के राज्य पर माधव सिंह को बिठाकर चौरासी लाख रुपये के बदले राणा ने माधव सिंह की तरफ से आरम्भ में उसको मिले हुये परगने होलकर को दे दिये। सिंहासन पर बैठकर माधव सिंह ने आरम्भ से ही अपनी योग्यता का परिचय दिया। राज्य में जो कमजोरियों पैदा हो गयी थीं। उनको उसने दूर करने की कोशिश की। वह मराठों के नेता होलकर की सहायता से अपने पिता के सिंहासन पर बैठा था और उसकी सहायता के मूल्य में उसको चौरासी लाख रुपये की आय के प्रसिद्ध परगने उसे देने पड़े थे। राज्याधिकार प्राप्त करने के बाद वह यह बात भूल न सका। वह समझता था कि होलकर का किसी भी समय दमन करना हमारा एक आवश्यक कर्त्तव्य होगा। वह अपने इस निश्चय के अनुसार राठौरों और जाटों की सहायता से ऐसा कर सकता था। लेकिन उसके राज्य के पड़ौसी शत्रुओं ने उसकी कल्पनायें बेकार कर दी। जाटो के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन इस ग्रन्थ में अन्यत्र दिया जा चुका है। जाटों का वंश राजस्थान के छत्तीस राजवंशों में एक वंश था। उस वंश का बाद में पतन हुआ। लेकिन पराधीन होने के बाद भी जाटों ने सदा स्वाधीन होने की चेष्टा की। इस जाति के लोग अत्यन्त लड़ाकू थे। चूडामणि नामक उनका सरदार उनको प्रोत्साहित किया करता था। इस जाति के लोगों ने संगठित होकर थून और सिनसीनी नामक स्थानों पर दुर्ग बनाने का कार्य आरम्भ किया था। वे आमतौर पर खेती करने का कार्य करते थे। लेकिन अवसर पाकर लूट-मार का कार्य भी करते थे। उनके संगठन में जाटों की बहुत बडी संख्या थी। उन लोगों ने दिल्ली तक लूटमार करने का कई बार माहस किया था। इन जाटो के बढ़ते हुये अत्याचारों को देखकर बादशाह के दरबार मे सवाई जयसिंह से उनका दमन करने के लिए कहा गया था। राजा 122