पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/२०

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ही बराहों की सेना ने एक साथ आक्रमण किया और उन सवको जान से मार डाला। लेकिन देवराज अभी तक सुरक्षित था। उसने मृत्यु का संकट अपने निकट देखकर राजा बराह के पुरोहित की शरण ली। जब बराह लोगों को मालूम हुआ तो उन लोगों ने पुरोहित के घर पर आक्रमण किया। यह दृश्य देखकर पुरोहित घबरा उठा। परन्तु शरण मे आये हुए देवराज के प्राणों की वह रक्षा करना चाहता था। इसलिए उसने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया। उसने देवराज को जनेऊ पहना दिया और उसने आक्रमणकारियों से कहा जिसको आप खोज रहे हैं, वह हमारे घर पर नहीं है।" पुरोहित ने देवराज पर आक्रमणकारियों को सन्देह करने का अवसर नहीं दिया। उसने उसी समय सबके सामने देवराज के साथ एक थाली मे भोजन किया। यह देखकर आक्रमणकारियो का सन्देह दूर हो गया। वे लोग पुरोहित का घर छोड़कर चले गये और अपने विशाल दल के साथ भाटी लोगो की राजधानी तनोट पर उन्होंने आक्रमण किया। वहाँ के दुर्ग में जितने भी आदमी थे, सव मार डाले गये और कुछ दिनो के लिए भाटी जाति का नाम मिटा दिया गया। बराह लोगो के भय से देवराज बहुत दिनों तक छिपकर वहीं रहा और अवसर पाने पर वह वहाँ से निकलकर अपने नाना बूतावन के राज्य में चला गया। ननिहाल मे पहुंचकर देवराज अपनी माता से मिला। तनोट के दुर्ग में बराह लोगो के द्वारा जो लोग मारे गये थे, उनमे से देवराज की माँ ने किसी प्रकार वहाँ से भागकर अपने प्राणों की रक्षा की। माता ने अपने पुत्र देवराज को देखकर और अनन्त सन्तोप का अनुभव करके कहा- "वेटा जिस प्रकार शत्रुओ ने हमारे वंश का सर्वनाश किया है, इसी प्रकार शत्रुओं का भी सर्वनाश होगा।" देवराज कुछ दिनों तक ननिहाल में रहा। उसके बाद उसने अपने जीवन-निर्वाह के लिए नाना से एक ग्राम मांगा। उसके नाना ने इसे स्वीकार कर लिया। जब राजा के परिवार वालों को मालूम हुआ कि वह देवराज को एक ग्राम देकर उसके रहने की सुभीता कर रहा है तो उन लोगों ने देवराज के नाना को समझा कर कहा-"यदि आपने देवराज के रहने के लिए ग्राम दिया तो निश्चय जानिये कि आपके इस राज्य का भयानक रूप से विनाश होगा।" उस राजा की समझ मे यह बात आ गयी। लेकिन देवराज उसका दौहित्र था। इसलिए उसने अपने यहाँ उसको कोई ग्राम न देकर मरुभूमि में एक साधारण स्थान उसे दे दिया। देवराज वहाँ जाकर रहने लगा और वहाँ पर उसने एक दुर्ग बनवाया। जिसका निर्माण कार्य केकय नामक एक चतुर शिल्पी के द्वारा हुआ। उसने उस दुर्ग का नाम भटनेर का दुर्ग रखा। इसके बाद उसने एक दूसरा विशाल दुर्ग बनवाया जिसकी सन् 653 के जनवरी महीने के पाँचवें दिन सोमवार को प्रतिष्ठा की गयी। जब बूता के राजा को मालूम हुआ कि मेरे दौहित्र देवराज ने वहाँ अपने रहने के लिए कोई स्थान न बनाकर दुर्ग वनवाया तो वह बहुत अप्रसन्न हुआ और उस दुर्ग को गिरवा देने के लिए उसने एक सेना भेजी। जब यह समाचार देवराज को मालूम हुआ तो उसने दुर्ग की चाबी अपनी माता को देकर अपने नाना के पास भेज दिया और जो सेना दुर्ग को गिराने के लिए आ रही थी, उसको दुर्ग पर अधिकार करने के लिए बुलवाया। वूता राज्य की सेना के 14