पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/३२३

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मॉग की गयी, अपने समस्त अधिकारों को सुरक्षित बनाकर। पत्र में यह भी लिखा गया कि राजराणा को शासन-भार देने में हमे कोई आपत्ति नहीं है, में उस पर पूरा विश्वास करता हूँ। लेकिन लिखी गयी इन शर्तों के वाद राज्य में राणा का कोई अधिकार वाकी नहीं रह जाता। स्वर्गीय महाराव के समय क्या राजराणा ने इसी प्रकार राज्य का शासन-भार अपने हाथों में रखा था? महाराव किशोर सिंह के नेत्रों में दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों की स्वीकृति दो शर्तो का कोई मूल्य नहीं है। यह वात उस पत्र में साफ-साफ जाहिर हैं। यदि इन दो शर्तो का अलग कर दिया जाता है तो सन्धि का कोई मूल्य नहीं रह जाता। इस दशा में आपसी समझौते का प्रश्न ही खत्म हो जाता है। राजराणा जालिम सिंह के उत्तराधिकारियों के अधिकारो का निर्णय करने के लिए जो दो शर्ते वाद में स्वीकृत होकर सन्धि में जोड़ी गयी,यदि वे न रखी गयी होती तो राज्य में राजराणा का अधिकार था ही और उसके उत्तराधिकारियों को प्राचीन प्रणाली के अनुसार अनधिकारी बना देना सहज न था। शासन प्रवन्धं से लेकर स्वर्गीय महाराव और उनके वंश के साथ जालिम सिंह का जो व्यवहार आरम्भ से लेकर अब तक चला आ रहा था, उसी ने उसके अधिकारों को अटूट बना दिया था और स्वर्गीय महाराव को कभी विरोधी गन्ध न मालूम हुई थी। सिंहासन पर बैठने के पहले ही किशोर सिंह को जालिम सिंह से विद्रोहात्मक भय मालूम हुआ। इसका क्या अभिप्राय हो सकता है? सिंहासन पर बैठने के बाद दस-पाँच वर्षों का अनुभव किसी हद तक उसकी सहायता कर सकता था, लेकिन उसको नवीन महाराव ने पास ही नहीं आने दिया। क्या इसका स्पष्ट अर्थ यह नहीं है कि जालिम सिंह के विरोधियों ने महाराव किशोर सिंह के मस्तिष्क को पहले से ही खराव कर दिया था? इस दशा में मेरा क्या कर्त्तव्य हो सकता है, इसे मे समझता हूँ। अंग्रेज सरकार और कोटा के राजा के बीच के व्यवहारों में मेरा वही स्थान है जो एक मध्यस्थ का हो सकता है और में ईमानदारी के साथ जालिम सिंह को कोटा के शासक की हैसियत से जानता है। सच वात यह है कि अगर किशोर सिंह का मस्तिष्क खराब न किया गया होता तो जो अशान्ति पैदा हुई, उसकी किसी प्रकार सम्भावना न थी। महाराव किशोर सिंह ने अपने पत्र में सन्धि का प्रस्ताव भी किया है, मुझसे न्याय की मांग भी की है और नाना जी पर पूर्ण रूप से विश्वास भी प्रकट किया है। लेकिन उसकी ये तीनों वातें उसके अस्तित्व को कहाँ ले जाकर पटकेगी, इसे उसने समझने की कोशिश नहीं, की। मुझमे लाभ की मांग करने का अर्थ यह है कि उसको मुझ पर सन्देह है। संधि का प्रस्ताव करने का अभिप्राय यह है कि वह पूर्व स्वीकृत संधि को स्वीकार नहीं करना चाहता। क्योंकि उस संधि की दो शर्तो को छोड़ देने का अर्थ है, सधि के अस्तित्व को ही नष्ट कर देना। जालिम सिंह के शासन को स्वीकार करने के बाद भी अपनी शर्तो के द्वारा उसे प्रत्येक अधिकार से वंचित कर देना क्या अर्थ रखता है, इसे वहीं समझ सकता है । वास्तव मे महाराव किशो. सिंह ने जो कुछ किया, उसके अपराधी वे है, जिन्होंने उसके भोलेपन का लाभ उठाया ओ उसे जालिम सिंह के विरुद्ध उकसाकर खडा कर दिया। महाराव किशोर सिह ने अपनी जो माँगे लिखकर भेजी हैं, वे मैत्री के आधार । होने वाली किसी सधि का समर्थन नहीं करती। यदि उनको मान भी लिया जाये तो उसी समय से जालिम सिंह और उसके उनराधिकारियो के अधिकारों का अन्त हो जाता है। उसके वार 317