पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/४२४

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रामसिंह को रानी का नाम सुनकर भी सन्तोप न मिला। अपने बढ़ते हुए क्रोध में उसने आदेश दियाः "रानी से जाकर कहो कि वह हमारे राज्य से फौरन निकल जाए और वह जहाँ से आयी है, वहीं चली जाए।" पति के इस आदेश को सुनकर रानी बहुत दुःखी हुई। लेकिन वह अपने स्वामी के कल्याण के लिये भगवान से प्रार्थना करने लगी। अपने पति से भी उसने क्षमा प्रार्थना की। लेकिन रामसिंह ने उसे स्वीकार नहीं किया। जब किसी प्रकार पति का क्रोध शान्त नहीं हुआ तो उसने दुःखी होकर कहा: "विना किसी अपराध के आप मुझे इस प्रकार का दण्ड दे रहे हैं, इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा और आपके मस्तक से मारवाड़ का राज मुकुट उतार दिया जायेगा।" यह कहकर रानी अपने पिता के राज्य से आये हुए पाँच हजार सैनिकों की सेना को लेकर और युद्ध क्षेत्र को छोड़ अपने पिता के राज्य को चली गयी। इस युद्ध के लिये जो सेनायें रामसिंह के पक्ष में युद्ध करने के लिये आयी थीं, उनमें से भोजपुरी सेना के चले जाने से रामसिंह की सैनिक शक्ति कमजोर पड़ गयी। नीमाज, रायपुर और राऊस की सेनायें किउसिर के ठाकुर की अधीनता में बख्तसिंह के झण्डे के नीचे पहुँच गयी और समस्त चम्पावत और कुम्पावत राजपूतों के साथ मिल गयीं। रामसिंह के पक्ष में एकत्रित सेनायें सब मिलाकर भी बख्तसिंह के पक्ष की सेनाओ से कम थी। लेकिन रामसिंह के मारवाड़ के गजा होने के कारण उनका साहस विरोधी सेनाओं की अपेक्षा प्रवल था। मेड़ता के इस मैदान में रामसिंह ने अपनी सेना का मुकाम किया था और वह बख्तसिंह का रास्ता देख रहा था। उसकी सेना ने जहाँ पर मुकाम किया था, वह मुकाम माता जी का स्थान कहलाता है। वहाँ पर आद्याशक्ति का एक मन्दिर है। कहा जाता है कि यह मन्दिर और उसके पास का जलाशय पाण्डवों का वनवाया हुआ है। वख्तसिंह ने सव से पहले अपनी सेना में युद्ध के बाजे बजवाये और उसने तोपों की मार आरम्भ कर दी। इसके साथ ही साथ रामसिंह के गोलन्दाजों ने भी तोपों की मार आरम्भ की। सम्पूर्ण दिन तोपो की मार में बीत गया। क्रमशः युद्ध की परिस्थिति भयानक होती गयी। इस युद्ध मे सभी राजपूत थे और दोनों पक्षों की तरफ से जितने भी लोग युद्ध कर रहे थे, सभी एक वंश और एक जाति के थ। इस युद्ध में भाई के विरुद्ध भाई और मित्र युद्ध कर रहे थे। सभी की नाडियो में एक ही रक्त था। फिर भी वे एक दूसरे का सर्वनाश करने के लिये उस युद्ध क्षेत्र मे एकत्रित हुये थे। शाम होते-होते एक घटना के साथ युद्ध बन्द हुआ। वह घटना इस प्रकार है-युद्ध क्षेत्र के पास बाजीपा नाम का एक तालाव है। उसके किनारे पर एक दादूपंथी सन्यासी का आश्रम है। कहा जाता है कि राजा सूरतसिंह ने इस आश्रम को वनवाया था। इस समय युद्ध के लिए दोनो पक्षों की ओर से जहाँ पर सेनायें खड़ी थीं, उसके मध्य भाग में यह आश्रम बना हुआ है। इस आश्रम मे बाबा कृष्णदास अपने शिष्यों के साथ रहता था। युद्ध आरम्भ होते ही शिष्य लोग आश्रम से भाग गये। परन्तु वावा कृष्णदास आश्रम मे ही मौजूद रहा। शिष्यों ने भागने के लिए उससे भी कहा था। परन्तु उसने आश्रम से भागने का इरादा नहीं किया। शिष्यो 420