पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/७३

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स्थान होगा, मैं इस बात पर विश्वास करता हूँ। निरीक्षण और अध्ययन के बाद मैंने जो परिणाम निकाले हैं उनका समर्थन अंग्रेजी राजदूत मिस्टर एलफिन्स्टन के उन कार्यो के द्वारा होता है जो उसने काबुल जाते हुए अपनी प्राप्त सामग्री के आधार पर किया है। इस समर्थन से मुझे संतोप मिला है। यहाँ पर मुझे यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक मालूम होता है कि मरुभूमि के वर्णन में कुछ बातें ऐसी भी आ गयी हैं जिनका वर्णन बीकानेर के इतिहास में किया जा चुका है। मरुभूमि होने के कारण उस राज्य के इतिहास में उनका उल्लेख करना भी आवश्यक था और वह उल्लेख आवश्यकतानुसार यहाँ पर भी जरूरी हो गया है । यद्यपि ऐसे स्थलों के वर्णन मे मैंने बड़ी सावधानी से काम लिया है। मरुभूमि मरुस्थली का दूसरा नाम है। इसका अर्थ यह है कि वह भूमि अथवा स्थल जो वालुकामय हो। थल अथवा स्थल प्रायः सूखी भूमि को कहते हैं। कावुल का थल, गोगा का थल और खेती करने के योग्य थल, इस प्रकार आमतौर से थल अथवा स्थल के प्रयोग होते हैं। प्रायः कहा जाता है जल और स्थल अर्थात् पानी और सूखी जमीन। वाघ के बदन पर जिस प्रकार लम्बी काली धारियाँ होती हैं उसी प्रकार मरुभूमि में रेत की पंक्तियाँ-सी बन जाती हैं और इस प्रकार की विस्तृत भूमि पर अगणित गाँवों और नगरों की आवादी दिखाई देती है। मरूभूमि के उत्तर में एक लम्बा -चौड़ा मैदान है। दक्षिण में नमक का एक विशाल दलदल रिन और कोलीवरी है। पूर्व में अरावली और पश्चिम में सिंधु नदी की घाटी है। पूर्व और पश्चिम की सीमायें अधिक विशेषता रखती हैं। क्योंकि पूर्व में अरावली पर्वत ने रेत के मार्ग को न रोका होता तो मध्य भारत भी वालुकामय होता। अरावली पर्वत की दीर्घाकार श्रेणी समुद्र के किनारे से दिल्ली तक चली गयी है। फिर भी बीच में जहाँ कहीं रास्ता मिल गया है वहीं से रेतीली भूमि प्रवेश कर आगे बढ़ गयी है और पर्वत को पार कर उसने अपना एक स्थान बना लिया है। जिन लोगों ने टोंक के पास वनास को पार किया है, जहाँ पर कांसो की दूरी में केवल रत ही रेत दिखाई देती है उनकी समझ में यह आसानी से आ जाएगा। मरुभूमि का विस्तार समुद्र की तरह अनन्त प्रतीत होता है जिसके ओर-छोर का कहीं पता नहीं चलता। हैदरावाद से ओच तक उत्तर की तरफ चलने पर बहुत दूर तक पूर्व की ओर बालू के विशाल दुर्ग दिखाई देते हैं, जिनकी ऊँचाई नदी की सतह से लगभग दो सौ फीट तक है। बालू के इन ऊँचे और विस्तृत दुर्गो को देखकर मनुष्य अनेक प्रकार की बाते सोच सकता है। प्राचीन काल मे प्रमार वंश के राजा इस मरुभूमि में शासन करते थे। इसका समर्थन करते हुए भट्ट ग्रन्थों में नौ दुर्गो का उल्लेख किया गया है। पूगल का दुर्ग उत्तर में है । मन्डोर मरुभूमि के बीच में है। आवू, खेरालू और परकर दक्षिण में। चोटन, अमरकोट, आरोर और लुद्रवा पश्चिम में है। मरुभूमि के इन नौ दुर्गो के अधिकारियों मे से राजा पर आक्रमण करने की शक्ति किसी में न थी। वहाँ की प्राचीन ऐतिहासिक वातो की जानकारी किसी को नहीं है। जिन ग्रन्थो में उसके उल्लेख पाये जाते हैं, उनमें भी इस प्रकार की बातों का एक बहुत बडा अभाव मिलता है। वहाँ के बडे-बड़े नगरों के नामों को भी लोग नहीं जानते । लुद्रवा और . 67