पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/७५

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थी। उन दिनों में वहाँ फोक, बबूल और बट के जो वृक्ष मिलते थे, उनके ऊपर हरी-हरी घास पैदा हो गयी थी। उस घास को दूर से देखने पर मालूम होता था कि उन वृक्षों पर हरी चद्दरें ढक दी गयी हैं। बालू की इन भयानक पहाड़ियों के बीच में कहीं-कहीं पर गाँव दिखायी देते थे। उन गाँवों के घरों की दीवारें छोटी-छोटी थीं और घरों के नाम पर घास-फूस की झोंपड़ियों के सिवा और कुछ न था। भाषा की सादगी और घटनाओं के यथार्थ वर्णन में एलफिन्स्टन साहव ने बड़ी ख्याति पायी है। मरुभूमि के उत्तरी भाग का उसने जो वर्णन किया है उसी के आधार पर हम आगे वर्णन करने की कोशिश करेंगे। यहाँ पर मन्डोर के स्थान पर जैसलमेर को मरुस्थली की राजधानी मान लेना अधिक उपयोगी मालूम होता है। यहाँ की उपजाऊ भूमि ऐसे बहुत-से स्थान हैं, जिनमें से कितने ही 40 मील तक की चौड़ाई में हैं। वहाँ पर न तो किसी मनुष्य के दर्शन होते हैं और न वहाँ पर खाने-पीने की कोई चीज ही मिलती है। जैसलमेर से मारवाड़ पहुँचकर और लूनी को पार न करके जालौर तथा सेवांची का वर्णन करेंगे। पारकर और बीरवाह चौहान राजाओं की अधीनता में है। राणा उन राजाओं की उपाधि है। जिस पहाड़ी पर जैसलमेर बसा हुआ है, उसका नाम त्रिकूट है। इस पर्वत के पश्चिम की ओर सिंधु नदी के नीले जल पर दृष्टिपात करने से हैदराबाद से ओच तक रेतीली पहाड़ियों पर कहीं- कहीं आसानी के साथ जल मिल सकता है। वहाँ छोटे-छोटे गाँवों की आवादी मिलती है। चार सौ से पाँच सौ मील लम्बे और एक सौ मील के चौड़े सम्पूर्ण राज्य में झोंपडे वाले छोटे- छोटे गाँव हैं। उनमें मरुभूमि को जोतकर उसमें खेती करते है। वहाँ गडरिये अपनी भेड़ों को चराया करते है और उपजाऊ भूमि पर ऊँटों की एक लम्बी श्रेणी मिलती है। उसे इस देश काफिला कहा जाता है। इन ऊँटों पर बहुत से लोग मिलकर चलते हैं, इसलिए कि उनको रास्ते में लुटेरों का भय रहता है। जो लोग इस प्रकार रवाना होते हैं, उनको खाने-पीने का बडा कष्ट रहता है। यदि उनको दो दिनों में एक बार भी खाने के लिए किसी प्रकार की सामग्री और के लिए स्वादहीन झरनों का जल मिल जाता है तो वे लोग अपना बड़ा सौभाग्य समझते हैं और भगवान को धन्यवाद देते हैं। सम्वत् 1100 सन् 1044 ईसवी में दूसौज जैसलमेर के राजसिंहासन पर बैठा था। वह हमीर का समकालीन था। घग्गर नदी वलूक से निकलकर हॉसी हिसार में प्रवाहित होती है। वह किसी समय भटनेर की दीवारों के नीचे बहती थी। भटनेर के बाद घग्गर नदी रंगमहल, बुल्लर और फूदल के समतल मैदानों से होकर वहती हुई आगे जिस तरफ जाती है, उसके सम्बन्ध में दो प्रकार के मत हैं। किसी का कहना है कि वह बहती हुई ओच के नीचे चली गयी है। लेकिन अबूबरकत के अनुसार-जिसे सन् 1809 ईसवी में अनुसंधान के लिए भेजा था और जिसने शाहगढ़ के समीप नदी के सूखे मार्ग को जो सागर कहलाता है, पार किया था- जैसलमेर कथनानुसार वह और रोरी भक्खर के बीच में प्रवाहित होती है। ऐसा मालूम होता है कि सगर नदी घग्गर नदी में मिल गयी और उसके बाद सगर का नाम मिटकर केवल घग्गर नाम प्रचलित हो गया। छोटी नदियाँ जब बड़ी नदियों से मिल जाती हैं तो उन सब को यही दशा होती है। 69