पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/८५

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कोली और भील-कोली जाति के लोग यहाँ अधिक पाये जाते हैं। उनकी गणना अछूतों में है। वे लोग मनुष्य के अधिकारों से वञ्चित कर दिये गये हैं। हिन्दू समाज में उनका स्थान अत्यन्त घृणापूर्ण है। ऊँची जाति के हिन्दू लोग पशुओं से भी गिरा हुआ व्यवहार उनके साथ करते हैं। कोली जाति के लोग सभी के घरों का भोजन करते हैं और मुर्दा खाने में भी वे लोग परहेज नहीं करते। इतना सब होने पर भी वे अपनी जाति को राजपूतों के साथ जोड़ते हैं। ये लोग चौहान कोली, राठौर कोली, परिहार कोली आदि नामों से अपना परिचय देते हैं। कपड़ा बुनना कोली जाति के लोगों का प्रधान व्यवसाय है और आमतौर पर भारतवर्ष के कहीं के भी कोली यह कार्य अधिक करते हैं। भील लोगों की परिस्थितियाँ भी कोली लोगों की तरह है। बल्कि बहुत-सी वातों में ये लोग कोलियों से भी पतित पाये जाते हैं। भील लोग सभी प्रकार के कीड़े, लोमड़ी, सियार, चूहे और सॉपों को खाते हैं इसलिए कि जिस देवी की वे पूजा करते हैं, उसको ऊँट और मुर्गे का मॉस चढ़ाया जाता है। उनके खाने-पीने की आदतें पतन की चरम सीमा तक पहुँच गयी है। कोलियों और भीलों का वैवाहिक सम्बन्ध नहीं है और वे एक दूसरे के साथ भोजन करने में परहेज करते हैं, परन्तु बहुत कम। पिथिल लोग यहाँ पर खेती का कार्य करते हैं। उनकी मर्यादा वैश्यों की तरह है। वे गायों और बैलों के साथ भेड़ें पालने का काम करते हैं। इनकी संख्या कोलियों और भीलों की तरह अधिक हैं। भारत के कुर्मी और मालवा तथा दक्षिण के कोलम्वी लोगों के साथ पिथिल लोगों की तुलना की जाती है। यहाँ पर रेवारी जाति की तरह और भी अनेक जातियाँ रहती हैं। रेवारी लोग ऊँटों को पालने का कार्य करते हैं। धात और ओमुरसुमरा राजस्थान की मरुभूमि को छोड़कर अव हम सिन्ध की मरुभूमि अथवा उस भूमि का वर्णन करेंगे, जो पश्चिम में राजस्थान की सीमा नदी की घाटी तक और उत्तर की तरफ दाऊदपोतरा से रिन के किनारे वुलारी तक फैली हुई है। इस भूमि की लम्बाई लगभग दो सौ मील है और चौड़ाई लगभग अस्सी मील। यहाँ की सम्पूर्ण भूमि थल के रूप में है। उसमें गाँव बहुत कम पाये जाते हैं। यह बात जरूर है कि वहाँ गड़रियों के कुछ छोटे-छोटे गाँव मिलते हैं। लेकिन नक्शे में उनका कहीं स्थान नहीं है। इसका कारण है कि इन छोटे- छोटे गांवों में रहने वाले गड़रिये बहुत आसानी के साथ अपने स्थानों को वदल देते हैं और नये स्थानों पर पहुंचकर वे रहने लगते हैं। उनके स्थान परिवर्तन का कारण पानी की असुविधा है। जहाँ इस प्रकार की वे सुविधा पाते हैं, अपने पुराने स्थानों को छोड़कर वे उन स्थानो पर पहुँच जाते हैं। उनकी ये सुविधायें स्थायी रूप से बहुत दिनों तक काम नहीं देती। इसलिए उनको फिर स्थान बदल देना पड़ता है। जहाँ पर ये लोग रहते हैं, वह समस्त भूमि एक विशाल रेगिस्तान के रूप में है और पचास-पचास मील तक पानी नहीं मिलता। इसलिए बड़ी सावधानी और बुद्धिमानी के साथ इस भूमि की यात्रा की जाती है। बालू की पहाड़ियाँ छोटे-छोटे पहाड़ों के रूप में मिलती हैं। यहाँ पर जो कुए मिलते भी हैं, वे बहुत लम्बे-गहरे होते हैं। पानी के अभाव में न जाने कितने मनुष्य तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। इन कुओं की गहराई सत्तर से पाँच सौ फीट तक पायी जाती है। इसको जानकर अनुमान लगाया जा सकता है कि मरू 77