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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१०३

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राजा और प्रजा।
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हमें मनुष्योचित गर्वके अनुभव करनेका कोई कारण नहीं है। अपराध करने और विचार होनेसे पहले ही हम अपने आपको जो कारागारमें प्रतिष्ठित नहीं देखते हैं, इससे भी हमारा कोई गौरव नहीं है।

यह बात एक हिसाबसे ठीक है, लेकिन इस ठीक बातका सदा अनुभव करते रहना राजा और प्रजा दोनोंमेंसे एकके लिये भी हितकारक नहीं है। अवस्थाकी पृथक्तामें हृदयका सम्बन्ध स्थापित करके असमानताके बीचमें भी मनुष्य अपने मनुष्यत्वकी रक्षा करनेकी चेष्टा करता है।

शासितों और शासकोंके बीचमें जो शासन-शृंखला है वह यदि सदा झनझनाई न जाया करे, बल्कि आत्मीय सम्बन्धके बंधनसे ढककर रक्खी जाया करे तो उससे अधीन जाति परका भार कुछ घट जाता है।

छापेखानेकी स्वाधीनता भी इसी प्रकारकी एक ढकनेवाली चीज है। इसने हमारी अवस्थाकी हीनताको छिपा रखा था। हम लोग जेता जातिकी अनेक शक्तियोंसे वंचित होनेपर भी इस स्वाधीनतासूत्रके कारण अंतरंग भावसे उन जेताओंके निकटवर्ती हो गए थे। हम लोग दुर्बल जातिका हीन भय और कपटता भूलकर मुक्त हृदय और उन्नत मस्तकसे सत्य और स्पष्ट बात कहना सीख रहे थे।

यद्यपि उच्चतर राजकार्योंमें हम लोगोंको कुछ भी स्वाधीनता नहीं थी, तो भी हम लोग निर्भीक भावसे परामर्श देकर, स्पष्ट वाक्योंमें समालोचना करके अपने आपको भारत राज्यके विशाल शासनकार्यका एक अंग समझते थे। यह इस बातका विवेचन करनेका अवसर नहीं है कि इसके अन्य अच्छे अथवा बुरे परिणाम क्या थे। लेकिन इसमें